देश ने 12 जनवरी, 2018 को एक अभूतपूर्व मामला देखा जब उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों, जिसमें न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ शामिल थे, ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ ‘रोस्टर व्यवस्था’ को लेकर मीडिया में शिकायत की। मुख्य न्यायाधीश को संबोधित एक पत्रा में न्यायाधीशों ने कहा कि वे उच्चतम न्यायालय में विभिन्न न्यायाधीशों को मामले दिए जाने की प्रणाली से खुश एवं संतुष्ट नहीं हैं।

उल्लेखनीय है कि मुख्य न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय में समकक्षों में प्रथम कहा जाता है। मुख्य न्यायाधीश के फैसलों का कोर्ट में अन्य न्यायाधीशों के फैसलों से अधिक महत्व नहीं होता। लेकिन मुख्य न्यायाधीश को अधिक प्रशासनिक शक्तियां प्राप्त हैं, जिसमें रोस्टर प्रणाली भी शामिल है। नवम्बर 2017 में, उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया कि मुख्य न्यायाधीश ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ है। इसके अनुसार, मुख्य न्यायाधीश अपने विवेक से यह निर्धारित कर सकता है कि कौन-से केस की सुनवाई किस न्यायाधीश की पीठ करेगी। ‘मास्टर ऑफ रोस्टर थ्योरी’ के अंतर्गत मुख्य न्यायाधीश को अधिकार है कि वह न्यायाधीशों के बीच मुकदमों या मामलों का आवंटन करे। जहां तक मामलों की सुनवाई और निर्णय लेने का प्रश्न है तो मुख्य न्यायाधीश सहित सभी न्यायाधीशों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं।

महत्वपूर्ण है कि मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के लिए कथित तौर पर रिश्वत लिए जाने के मामले को लेकर दायर याचिका पर न्यायमूर्ति चेलमेश्वर और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीत की पीठ ने अपने आदेश में कहा था कि याचिका पर शीर्ष अदालत के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ को सुनवाई करनी चाहिए। हालांकि, मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने न्यायमूर्ति चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ का आदेश पलट दिया और कहा कि कौन-सी पीठ कब गठित की जानी चाहिए यह निर्णय केवल मुख्य न्यायाधीश ही ले सकता है।

यह चर्चा सार्वजनिक एवं जिम्मेदार गलियारों में हो रही है कि चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा की गई शिकायत का क्या समाधान हो सकता है? निःसंदेह, मुख्य न्यायाधीश को यह विशेष प्रस्थिति प्राप्त है कि वह मामलों का आवंटन अपने विवेकानुसार कर सकता है। उन्हें यह अधिकार है कि वह निर्णय करें कि कौन-सा मामला कौन-सी पीठ सुनेगी। यदि न्यायाधीशों को उनकी पसंद के मामलों की सुनवाई का अधिकार दे दिया जाए, तो न्यायालय की व्यवस्था धराशायी हो जाएगी और विशिष्ट मामले की सुनवाई को लेकर आंतरिक कोलाहल पैदा हो जाएगा जिससे न्यायिक कार्य बाधित एवं अवरुद्ध हो जाएगा। न्यायिक अनुशासन और न्यायालय के कार्यों के उचित निपटान के लिए इस प्रक्रिया का सख्त पालन किया जाना आवश्यक है। इस प्रक्रिया से किसी प्रकार के खिलवाड़ की अनुमति नहीं दी जा सकती।

मास्टर ऑफ रोस्टर के रूप में कार्य करने की मुख्य न्यायाधीश की शक्ति के स्रोत  संविधान के अनुच्छेद 145(1) में प्रावधान किया गया है कि संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय समय-समय पर, राष्ट्रपति के अनुमोदन से न्यायालय की पद्धति और प्रक्रिया के, साधारणतया, विनियमन के लिए नियम बना सकेगा।

संविधान के अनुच्छेद 246, जिसे संघ सूची की प्रविष्टि 77 के साथ पढ़ा जाना चाहिए, प्रावधान करता है कि संसद को उच्चतम न्यायालय की संरचना, संगठन, अधिकार क्षेत्र और शक्तियों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति है।

संसद ने अभी तक न्यायाधीशों के बीच न्यायिक कार्यों के वितरण या मामलों के आवंटन को लेकर पीठ के निर्माण या सिद्धांतों को तैयार नहीं किया है। उच्चतम न्यायालय, अनुच्छेद 145 के तहत् प्राप्त शक्तियों के संदर्भ में, प्रक्रियाओं एवं व्यवहार को विनियमित करने के नियम बनाता आ रहा है। मौजूदा समय में उच्चतम न्यायालय का नियम, 2013 इस क्षेत्रा को विनियमित कर रहा है। इन नियमों के आदेश VI ने ‘‘डिवीजन कोर्ट के निर्माण और एकल न्यायाधीशों की शक्तियों’’ के संबंध में विशिष्ट प्रावधान बनाए हैं। लेकिन नियम रोस्टर के संबंध में न तो स्पष्ट हैं और न ही रोस्टर बनाने हेतु कोई दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।

मास्टर ऑफ द रोस्टर व्यवस्था की तुलनात्मक स्थितिः अमेरिका में सभी नौ न्यायाधीश एक पीठ में बैठते हैं जबकि इंग्लैंड में 12 न्यायाधीश 5 पैनलों में बैठते हैं।

अमेरिका में यह आवश्यकता ही नहीं पड़ती कि कौन-सी पीठ किन मामलों की सुनवाई करेगी क्योंकि पीठ एक ही है। वहीं ब्रिटेन में मुख्य न्यायाधीश द्वारा मामलों के चयन की शक्ति बेहद सीमित है। दक्षिण अफ्रीका में संवैधानिक मामलों पर संविधान न्यायालय उच्चतम न्यायालय है, इसलिए इसकी अधिकारिता संवैधानिक मामलों की सुनवाई तक है। न्यायालय में 11 न्यायाधीश होते हैं जिनकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश और उप-मुख्य न्यायाधीश करते हैं। संविधान व्यवस्था करता है कि मामलों की सुनवाई न्यूनतम आठ न्यायाधीशों की गणपूर्ति (कोरम) द्वारा की जाएगी। दक्षिण अफ्रीका में भी मुख्य न्यायाधीश को मामलों के आवंटन की आवश्यकता नहीं होती।

ऑस्ट्रेलियाई न्यायिक व्यवस्था में उच्च न्यायालय सर्वोच्च होता है। इसकी स्थापना 1901 में संविधान की धारा 71 द्वारा की गई थी। यहां के न्यायालय में सात न्यायाधीश होते हैं। ऐसे मामलों में जिसमें संविधान की व्याख्या शामिल है या न्यायालय को अपने पूर्व के निर्णयों को पलटने की आवश्यकता है या सार्वजनिक महत्व या लोक हित का कोई मामला हो, तो सातों जजों की पूर्ण पीठ मामले की सुनवाई करती है। ऑस्ट्रेलिया के उच्च न्यायालय में प्रत्येक सुनवाई के लिए मुख्य न्यायाधीश ‘एक रोस्टर’ प्रस्तावित करते हैं। हालांकि मुख्य न्यायाधीश की यह शक्ति अनुशंसात्मक होती है न कि निश्चयात्मक। इस प्रकार ऑस्ट्रेलिया के उच्च न्यायालय की शक्ति भारतीय न्यायालय के समान है। हालांकि, बेहद महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई पूर्ण पीठ द्वारा सुनी जाती हैं, ऑस्ट्रेलियाई मुख्य न्यायाधीश की इस संदर्भ में शक्ति भारतीय मुख्य न्यायाधीश की तुलना में सीमित है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि, भारत में न तो अमेरिका की भांति एकल पीठ है और न ही ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया की तरह मुख्य न्यायाधीश के सीमित अधिकार। अतः विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया से सीख लेते हुए ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ व्यवस्था में अपेक्षित सुधार करने होंगे।

सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस में अपनी नाराजगी जाहिर करने के कुछ दिनों बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यह सार्वजनिक कर दिया कि किन मामलों की सुनवाई कौन न्यायाधीश करेंगे। नए रोस्टर के तहत् नई जनहित याचिकाओं पर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ही सुनवाई करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर जारी किए गए 13 पन्नों की अधिसूचना में नए मामलों की सुनवाई के लिए रोस्टर तैयार किया गया है। भारत के प्रधान न्यायाधीश के आदेश के तहत् रोस्टर सिस्टम पर अधिसूचना 5 फरवरी, 2018 से प्रभावी हो गई। अधिसूचना में चीफ जस्टिस और 11 अन्य जजों की अध्यक्षता वाली पीठ के पास मामलों का बंटवारा किया गया है। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ नई जनहित याचिकाओं, चुनाव मसलों, न्यायालय की अवमानना, सामाजिक न्याय आदि मसलों पर सुनवाई करेगी। वहीं दूसरे वरिष्ठतम जज न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ के पास आपराधिक, श्रम, कर, भूमि अधिग्रहण, न्यायिक अधिकारियों से जुड़े मसले, समुद्री कानून आदि के मामले आएंगे। तीसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ के पास न्यायालय की अवमानना, पर्सनल लॉ, एक्साइज आदि के मामले आएंगे। चौथे वरिष्ठतम न्यायाधीश मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली पीठ के पास वन संरक्षण, भूमि अधिग्रहण, जेल, पेड़ धार्मिक आदि मामले आएंगे। पांचवे वरिष्ठतम जज न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ के पास श्रम, फैमिली लॉ, पर्सनल लॉ धार्मिक कानून आदि के मसले आएंगे। वहीं न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा एवं न्यायमूर्ति रोहिंग्टन एफ नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठों के समक्ष इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कॉलेज के पंजीकरण से संबंधित मामले आएंगे।

जुलाई 2018 को उच्चतम न्यायालय ने उस याचिका पर अपना फैसला सुनाया जिसमें वरिष्ठ वकील शांति भूषण द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश को शीर्ष न्यायालय में मामलों के आवंटन का रोस्टर तैयार करने की प्रक्रिया को चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि देश के प्रधान न्यायाधीश ही मास्टर ऑफ रोस्टर हैं और शीर्ष न्यायालय की विभिन्न पीठों को मुकदमों का आवंटन करने का विशेषाधिकार उन्हीं को है। न्यायाधीश ए.के. सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने अपने अलग-अलग फैसले में कहा कि वरिष्ठतम न्यायाधीश होने के कारण प्रधान न्यायाधीश को ही न्यायालय का प्रशासन चलाने का अधिकार है, इनमें मुकदमों का आवंटन भी शामिल है। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि अपने समकक्ष न्यायाधीशों में वरिष्ठतम होने के कारण मुकदमों के आवंटन का दायित्व प्रधान न्यायाधीश का ही है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने ‘रोस्टर ऑफ मास्टर’ मामले में चल रहे विवाद को समाप्त कर दिया है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि रोस्टर मामले में विवाद का कोई स्थान नहीं है। जैसाकि विदित है कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ और तीन न्यायाधीशों की पीठ पहले ही फैसला दे चुकी थी कि प्रधान न्यायाधीश ही मास्टर ऑफ रोस्टर हैं।

 

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