1598 में, शाहजहां द्वारा अपनी बेगम मुमताज के लिए ताजमहल बनवाए जाने से लगभग 50 वर्ष पूर्व, अकबर के प्रधान सेनापति और जाने-माने कवि अब्दुर रहीम खान-ए-खाना ने अपनी बेगम माह बानू की याद में दिल्ली में यमुना नदी के किनारे एक मकबरा बनवाया था। यह एक महिला के लिए निर्मित करवाया गया पहला मुगल मकबरा था।
2014 में आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर (एकेटीसी) ने इंटरग्लोब फाउंडेशन और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के साथ साझेदारी में इस स्मारक के संरक्षण के लिए प्रयास शुरू किए तथा 1,75,000 श्रम दिनों और 3,000 व्यक्तिगत कारीगरों के प्रयास से छह वर्षों में इस जीर्णोद्धार कार्य को पूरा करने के पश्चात् 17 दिसंबर, 2020 को अब्दुर रहीम खान-ए-खाना की जयंती पर इस स्मारक को पर्यटकों के लिए खोल दिया गया।
भारत में मुगल साम्राज्य के पतन के बाद इस मकबरे की भव्य इमारत को तहस-नहस कर दिया गया था। विशेषज्ञों का कहना है कि 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक इसका उपयोग शिकारगाह के रूप में किया जाता था। बाद में इस स्मारक के पत्थर लूट लिए गए और उनका उपयोग अन्य स्मारकों के निर्माण में किया गया। इससे रहीम के मकबरे की हालत जर्जर हो गई और उसके ढहने की स्थिति उत्पन्न हो गई। 1920 के दशक में एएसआई द्वारा अग्रभित्ति (इमारत के अग्रभाग) पर ऊपर से लटक रहे बलुआ पत्थर के कुंदों की चिनाई करवा दी गई, अर्थात इमारत को मरम्मत कर उसे कुंदों का भार झेलने योग्य बना दिया, जिससे यह स्मारक ढहने से बच गया।
इस मकबरे का निर्माण 13वीं शताब्दी के सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के आसपास के क्षेत्र में किया गया था क्योंकि यह मान्यता थी कि एक संत की कब्र के पास दफनाया जाना शुभ होता है। अन्य मुगल संरचनाओं के विपरीत, इसका निर्माण नदी के किनारे के चबूतरे पर किया गया था, न कि बगीचे के बीच में।
इस स्मारक को लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित किया गया है, जिसमें सफेद संगमरमर जड़ित हैं। ताजमहल की संरचना इसकी वास्तुकला से प्रभावित है। स्मारक का दोहरा गुंबद मूल रूप से संगमरमर से ढका हुआ था, कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी के मध्य में सफदरजंग के मकबरे के निर्माण हेतु इस मकबरे के अधिकांश संगमरमर को निकाल दिया गया था। इसकी दीवारें संगमरमर, प्लास्टर एवं पत्थरों पर विविध रूपांकनों के साथ अलंकृत हैं। इनमें आमतौर पर मकबरों में देखे जाने वाले ज्यामितीय और बेल-बूटों के नमूने शामिल हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मकबरा, हुमायूं के मकबरे के समान है जो इसके काफी नजदीक स्थित है। रहीम ने यह सुनिश्चित किया था कि कोई दो आकृतियां या गोलाकार-चित्र एक समान न हों। इस मकबरे में रहीम ने स्वास्तिक और मोर हिंदू रूपांकनों का भी उपयोग किया, जो उनकी हिंदू धर्म की सार्थक समझ को दर्शाते हैं। ईरानी वास्तुकला और भारतीय रूपांकनों का संयोजन इसकी अनूठी विशेषता है। मकबरे में एक जलापूर्ति प्रणाली के रूप में एक फव्वारा भी था जो ताल से बलुआ पत्थर के चबूतरे पर 20 फीट की ऊंचाई तक पानी की बौछार कर सकता था। यह जल प्रणाली रहीम के हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग (द्रवीय अभियांत्रिकी) कौशल का प्रमाण है।
मिर्जा अब्दुर रहीम खान बादशाह अकबर के सौतेले बेटे थे। वे बैरम खान, जो अकबर के संरक्षक थे, के इकलौते पुत्र थे। अकबर द्वारा उन्हें एक उत्कृष्ट परवरिश देने के साथ-साथ ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था, जिसका अर्थ है ‘अधिपतियों का अधिपति’। रहीम के नेतृत्व में मुगल सेनाओं ने दक्खिन, गुजरात और सिंध पर जीत हासिल की थी। वे एक कवि भी थे और उनकी कविता तथा दोहों की तुलना भक्तिकालीन कवियों सूरदास, तुलसीदास और कबीर से की जाती है। एक प्रतिभाशाली कवि होने के अलावा वे एक अनुवादक और फारसी, संस्कृत एवं हिंदी के ज्ञाता भी थे। वे मुगल बादशाह अकबर के दरबार के नवरत्नों (नौ रत्नों) में से एक थे।
रहीम को अकबर द्वारा प्रिंस नूर-उद-दीन मुहम्मद सलीम (बाद में मुगल सम्राट जहांगीर) का संरक्षक नियुक्त किया गया था। हालांकि, जब जहांगीर गद्दी पर बैठा तो रहीम के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए। रहीम की मृत्यु 1627 में हुई थी और उन्हें अपनी पत्नी के लिए निर्मित करवाए गए मकबरे में ही उनकी पत्नी की कब्र के बगल में दफनाया गया।