भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा 22 जुलाई, 2019 को आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से स्वदेशी तकनीक से निर्मित चंद्रयान-2 अंतरिक्षयान को जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (जीएसएलवी)-एमके III के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया था। चंद्रयान-2, जिसमें एक ऑर्बिटर, एक लैंडर (विक्रम) तथा एक रोवर (प्रज्ञान) शामिल थे, को प्रक्षेपण के 17 मिनट पश्चात एक भू-स्थैतिक अंतरण कक्षा में अंतःस्थापित किया गया था।

लैंडर का नाम भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम ए. साराभाई के नाम पर ‘विक्रम’ रखा गया। प्रज्ञान (संस्कृत में ‘बुद्धिमान’) नामक रोवर को लैंडर पर रखा गया था और इसे ‘विक्रम’ पर लगे हुए रैंप की मदद से चंद्रमा की सतह पर उतारा गया। ब्रह्माण्ड में चंद्रमा, पृथ्वी का सबसे नजदीकी उपग्रह है, जहां अंतरिक्षीय अन्वेषण के प्रयास किए जा सकते हैं तथा उन प्रयासों का दस्तावेजीकरण किया जा सकता है। इसके अलावा, चंद्रमा एक ऐसा आधार प्रदान करता है जहां से गहन-अंतरिक्ष अभियान के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियों का परीक्षण कर उसे प्रमाणित किया जा सकता है। इस अभियान का उद्देश्य चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंड करने तथा इसकी सतह पर रोबोट के माध्यम से रोवर को संचालित करने की क्षमता को प्रदर्शित करने में मदद करना है।

इसरो के अनुसार, चंद्रयान-2 का व्यापक उद्देश्य अंतरिक्ष में भारत की मौजूदगी को बढ़ावा देना, अंतरिक्ष के प्रति हमारी समझ बढ़ाना, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी की प्रगति को बढ़ावा देना, वैश्विक तालमेल को आगे बढ़ाना, और खोजकर्ताओं तथा वैज्ञानिकों की भावी पीढ़ी को प्रेरित करना था।

इस अभियान के अंतर्गत चंद्रमा की सतह का व्यापक मानचित्रण किया जाना था, ताकि चंद्रमा की उत्पत्ति एवं क्रमिक विकास की खोज हेतु उसकी सतह की विविधता भरे संयोजन का अध्ययन किया जा सके। माना जाता है कि, चंद्रमा के अध्ययन द्वारा पृथ्वी के आरंभिक इतिहास को समझने के लिए अबाधित ऐतिहासिक तथ्य एवं सौर-प्रणाली के आंतरिक पर्यावरण की जानकारी प्राप्त होगी।

जैसाकि ‘चंद्रयान-1’ अभियान के दौरान चंद्रमा की सतह पर एवं सतह के नीचे और चंद्रमा पर जल स्रोत की खोज के लिए ‘चंद्र बहिर्मंडल’ के विरल भाग में जल के अणुओं के प्रसार संबंधी प्रमाण मिले थे। उन्हीं प्रमाणों के आधार पर इस संदर्भ में चंद्रयान-2 के माध्यम से आगे और अध्ययन किया जाना था।

चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान-2 को उतारने (लैंडिंग) हेतु संबद्ध स्थल का चयन इसी दिशा में किया गया था जैसाकि छायाकृत भाग, जल की उपस्थिति की खोज में सहायक होगा। चंद्रमा की उत्पत्ति और विकास को बेहतर ढंग से समझने के लिए चंद्रमा की सतह पर विस्तृत स्थलाकृतिक विश्लेषण, व्यापक खनिज विश्लेषण तथा कई अन्य प्रयोग किए गए। लैंडिंग स्थल पर मौजूद कटोरे की आकृति का गड्ढा (क्रेटर) यान को उतरने में मदद करती है तथा इस क्षेत्र में आरंभिक सौर-प्रणाली काल के जीवाश्म अभिलेख मौजूद हैं। इसके अलावा चंद्रमा के आयनमंडल, भू-पर्पटी का अध्ययन करने तथा चंद्र-भूकंप का मापन करने के उद्देश्य भी थे।

14 अगस्त, 2019 को चंद्रयान-2 ने चंद्र स्थानान्तरण प्रक्षेपपथ (एलटीटी) में प्रवेश किया और चंद्र कक्षा सम्मिलन में प्रवेश करने के बाद 20 अगस्त, 2019 को इसे चंद्रमा की वृत्ताकार कक्षा में सफलतापूर्वक अंतःक्षेपित किया। चंद्र-सीमित कक्षीय की कुशल शृंखला के बाद, यान के कक्षा को चंद्रमा के चारों ओर बनी वृत्ताकार ध्रुवीय कक्षा में सीमित कर दिया गया। 2 सितंबर, 2019 को विक्रम लैंडर, अपने घूर्णन कक्ष से अलग हो गया। 7 सितंबर, 2019 को 35 किमी. के कक्षीय नियोजित अवतरण प्रक्षेप पथ का अनुसरण कर विक्रम को उतारने का प्रयास किया गया, परंतु सतह से लगभग 2 किमी. ऊपर ही लैंडर एवं पृथ्वी पर स्थित स्टेशन के बीच संचार संपर्क टूट गया। लैंडर की सभी प्रणालियों एवं सेंसर ने इस बिंदु तक अपेक्षा के अनुसार काम किया और कई नई तकनीकों जैसे लैंडर में प्रयुक्त चर थ्रस्ट प्रणोदन प्रौद्योगिकी को प्रमाणित किया। नासा के अनुसार, उन्होंने लैंडर के मलबे की पुष्टि की, जिसका अर्थ है कि यह दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।

हालांकि, लैंडर के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण यह मिशन अपने वांछित लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सका लेकिन ऑर्बिटर (कक्षीय यान) चंद्रमा का अध्ययन करने के लिए अपने सात वर्ष के मिशन को जारी रखेगा। चंद्रमा के चारों ओर 100 किमी.×100 किमी. की कक्षा में घूमते हुए, इसके 8 प्रयोग जारी रहेंगे तथा उनके अध्ययन में सतह भूविज्ञान एवं संरचना से लेकर बर्हिमंडल के माप तक शामिल हैं। ये अध्ययन एवं अवलोकन वैज्ञानिकों को चंद्रमा के विभिन्न पहलुओं को समझने में मदद करेंगे।

इसरो के अनुसार, चंद्रयान-2 उपग्रह पर, लार्ज एरिया सॉफ्ट एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (सीएलएएसएस) और एक एक्स-रे प्रतिदीप्ति स्पेक्ट्रोमीटर, तथा नीतभार लगे हुए हैं जिनका लक्ष्य 12 किमी. स्थानिक रिजॉल्यूशन पर तत्वों के परिमाण का मानचित्रण करना है। इन तत्वों का विशिष्ट पैटर्न ज्ञात करने के लिए सीएलएएसएस द्वारा चंद्रमा की मृदा का उस समय अच्छी तरह प्रेक्षण किया जा सकता है, जब एक सौर चमक सतह को प्रकाशित करने हेतु एक्स-रे का समृद्ध स्रोत प्रदान करता हो। इसरो के अनुसार, सीएलएएसएस द्वितीयक एक्स-रे उत्सर्जन की खोज कर सकता है और फिर इनका उपयोग कर चंद्रमा पर मैग्निशियम, ऐल्युमिनियम, सिलिकॉन, कैल्सियम, टाइटेनियम, लौह एवं सोडियम जैसे प्रमुख तत्वों की मौजूदगी भी ज्ञात कर सकता है।

सीएलएएसएस ने जियोटेल के माध्यम से अपने पहले गमन के दौरान आवेशित कणों एवं इसकी तीव्रता की भिन्नता की खोज की। चंद्रमा, प्रत्येक 29 दिनों में एक बार, लगभग 6 दिनों के लिए पूर्ण चंद्रमा के चारों ओर केंद्रित जियोटेल से होकर गुजरता है। इसरो के अनुसार, ऑर्बिटर के उपकरण, जियोटेल के गुणों का अध्ययन कर सकते हैं।


अंतरिक्ष के जियोटेल क्षेत्र में सबसे बेहतर प्रेक्षण सूर्य एवं पृथ्वी के पारस्परिक सौर वायु के प्रभाववश उत्पन्न क्षेत्र में प्राप्त किया जाता है। सौर वायु का निर्माण सूर्य द्वारा उत्सर्जित आवेशित कणों की एक सतत धारा से होता है। ये कण सूर्य के विस्तारित चुंबकीय क्षेत्र में भी सन्निहित हैं, क्योंकि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र, सौर पवन प्लाज्मा को बाधित करता है। इस पारस्परिक प्रभाव के कारण, पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय आवरण निर्मित होता है। सूर्य के सामने पड़ने वाले पृथ्वी के भाग पर यह चुंबकीय आवरण पृथ्वी की त्रिज्या के लगभग तीन से चार गुना क्षेत्र में अविस्तीर्ण होता है। पृथ्वी के दूसरी ओर यह चुंबकीय आवरण चंद्रमा की कक्षा से परे उसकी विस्तीर्ण पुच्छ तक फैला होता है। इस पुच्छ या पुछल्ले भाग को जियोटेल कहा जाता है।


सीएलएएसएस (क्लास) पेलोड से संबद्ध सौर एक्स-रे मॉनिटर (एक्सएसएम) ने जीओईएस (जियोस्टेशनरी ऑपरेशनल एनवायरमेंटल सैटेलाइट) की संवेदनशीलता सीमा से बहुत अधिक तीव्रता वाले सौर विकिरण का अवलोकन किया। इमेजिंग इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोमीटर (आईआईआरएस) जल के अणुओं तथा उनके अस्थायी एवं स्थानिक बदलावों के स्पष्ट संकेत प्रदान करने में सक्षम हैं। आईआईआरएस, चंद्रमा की सतह पर मौजूद खनिज के वैश्विक मानचित्रण करने तथा चंद्रयान-1 पर एम3 (M3) के कार्य को भी जारी रखेगा। चंद्र टेलिस्कोप पर लगा हुआ एटमॉस्फेरिक कंपोजिशन एक्सप्लोरर-2 (चेस-2) एक द्रव्यमान स्पेक्ट्रोमीटर है जो चंद्रमा के बहिर्मंडल में स्थित कणों के तटस्थ टुकड़ों का मापन करता है। चंद्र सतह से 100 किमी. की ऊंचाई पर स्थित कक्षा से 25 सेमी. स्थानिक रिजॉल्यूशन और 3 किमी. के प्रमार्ज स्वाथ के साथ कक्षीय उच्च रिजॉल्यूशन कैमरा (ओएचआरसी), चंद्रमा की कक्षीय मंच से बहुत उच्च स्तर की छवियां प्रदान कर सकता है। टेरेन मैपिंग कैमरा-2 (टीएमसी2) चंद्रयान-1 पर लगे हुए टीएमसी की अगली कड़ी है जो पूरे चंद्रमा के लिए डिजिटल उन्नयन मॉडल (डीईएम) का सृजन करता है।

चंद्रयान-1 द्वारा भेजी गई छवियों पर आधारित, इसरो के हालिया आंकड़े यह सुझाव देते हैं कि चंद्रमा की सतह पर जंग (रस्टिंग) लगने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। खबरों के अनुसार, चंद्रमा थोड़ा लाल हो रहा है जो इंगित करता है कि इसकी सतह, विशेष रूप से इसके ध्रुवों पर लौह (हेमटाइट) के लाल-काले खनिज रूप का निर्माण हो रहा है। इस खोज ने वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है क्योंकि भले ही चंद्रमा की सतह पर लोहे से समृद्ध चट्टानें हैं, परंतु इसकी सतह पर अब तक जल एवं ऑक्सीजन की उपस्थिति के प्रमाण नहीं मिले हैं और ये दो ऐेसे आवश्यक तत्व हैं, जिनकी लोहे के साथ परस्पर क्रिया के बाद ही जंग लगने की प्रक्रिया शुरू होती है।

चंद्रयान-2 की खोजें: मार्च 2022 में चंद्रयान के ऑर्बिटर (CHASE-2) ने चंद्रमा के बाहरी क्षेत्र में ऑर्गन 40, एक अक्रिय रंगहीन एवं गंधहीन गैस, की व्यापक मौजूदगी का पता लगाया। यह सतह एवं बहिर्मंडल की अंतःक्रिया प्रक्रियाओं के बारे में समझ प्रदान करेगा। इसी प्रकार, फरवरी 2022 में चंद्रयान-2 के पेलोड (क्लास) ने जनवरी 2022 में सौर ज्वालाओं (सोलर फ्लेयर) के कारण उत्पन्न सोलर प्रोटॉन घटना (SPEs) का पता लगाया। इनमें से अधिकतर उच्च ऊर्जा प्रोटॉन होते हैं, जो अंतरिक्ष प्रणाली को प्रभावित करते हैं और अंतरिक्ष में मानव पर विकिरण प्रभाव को बढ़ा देते हैं।

चंद्रयान-2 की यात्रा अवधि इतनी लंबी क्यों? 1959 में चंद्रमा तक पहुंचने में सोवियत रूस के लूना-2 नामक अंतरिक्षयान को केवल 34 घंटे लगे थे। इसके बाद, 1969 में नासा के अपोलो-11 अभियान ने चंद्रमा पर मानव को उतारने हेतु चार दिनों से कुछ अधिक घंटों की यात्रा की थी। अपोलो-11 न केवल विश्व का पहला मानवयुक्त चंद्र अभियान था, बल्कि यह चंद्रमा पर पहुंचने के लिए अंतरिक्ष यात्रियों की सबसे तेज यात्रा भी थी। जबकि इसरो के चंद्रयान-2 ने चंद्रमा पर उतरने का प्रयास करने से पहले 48 दिनों तक यात्रा की, जो एक विसंगति को दर्शाती है।

चंद्रयान-2 की लंबी यात्रा की मुख्य वजह, रॉकेट के निर्माण, इसे ले जाने वाले ईंधन की मात्रा एवं अंतरिक्षयान की गति में निहित है। अंतरिक्ष में लंबी दूरी तय करने के लिए, उच्च गति और सीधे प्रक्षेप पथ की आवश्यकता होती है। नासा द्वारा अपोलो-11 को कक्षा में स्थापित करने के लिए प्रयुक्त सैटर्न वी (Saturn V) प्रमोचक 40 टन से अधिक की उत्थापक क्षमता वाला शक्तिशाली भारी-उत्थापक प्रमोचक था। इस प्रमोचक के साथ चंद्र मॉड्यूल (प्रतिरूपक), सेवा मॉड्यूल और चालक दल के कैप्सूल आवास वाले कमांड मॉड्यूल, संलग्न थे। सैटर्न वी, 39,000 किमी. प्रति घंटे से अधिक की गति से यात्रा कर सकता था। भारत के पास उस क्षमता का एक भी रॉकेट नहीं है, जो चंद्रयान-2 को सीधे चंद्रमा पर ले जाने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली हो। जीएसएलवी-एमके III, प्रमोचक को ‘बाहुबली’ कहा जाता है, लेकिन यह सैटर्न वी की क्षमता के आसपास भी नहीं है, और इसकी भूमिका चंद्रयान-2 को केवल भू-तुल्यकालिक कक्षा में स्थापित करने भर की थी। इसलिए इसरो ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का लाभ उठाने के लिए एक घुमावदार मार्ग चुना, जो यान को स्लिंगशॉट विधि द्वारा चंद्रमा की ओर बढ़ने में मदद करता और फिर विक्रम लैंडर चंद्रमा के गुरुत्वीय बल का उपयोग कर चंद्रमा की सतह पर उतरता।

इसरो के अध्यक्ष के अनुसार, किसी भी अंतरिक्षयान को चंद्रमा तक जाने के लिए पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बचने के लिए 11 किमी./सेकेंड के न्यूनतम वेग की आवश्यकता होती है, जबकि उसे प्रमोचन यान द्वारा 10.3 किमी./सेकेंड का वेग और यान की प्रणोदन प्रणाली द्वारा 700 मीटर/सेकेंड का वेग प्रदान किया जाता है। जैसाकि जीएसएलवी का इंजन छोटा है, अतः इसे लगातार प्रज्वलित न कर अल्पकालीन प्रस्फोट द्वारा प्रज्वलित किया जा रहा था ताकि यान का परिचालन सुनियोजित रूप से किया जा सके। ‘सैटर्न वी’ जैसा शक्तिशाली इंजन, चंद्रयान-2 को एकल शॉट में चंद्रमा तक पहुंचाने में सक्षम है। चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का उपयोग, यान को चंद्रमा की कक्षा में ले जाने के लिए किया गया। इसके अलावा, घुमावदार पथ के माध्यम से यान को चंद्रमा तक ले जाना अधिक लागत प्रभावी है, भले ही इस यात्रा में अधिक समय लगता हो। चंद्रयान-2 अभियान में इसरो का कुल निवेश 978 करोड़ रुपये है, जिसमें से प्रमोचक के निर्माण पर 375 करोड़ रुपये खर्च हुए थे और यह राशि नासा द्वारा ‘सैटर्न वी’ प्रमोचक पर किए गए व्यय की तुलना में बहुत कम है।

अंतरिक्षयान, भू पार्किंग कक्षा से पृथ्वी के चारों ओर स्थित एक विस्तारित कक्षा में परिचालित होता है। जब अपभू (एपोजी) चंद्रमा की कक्षा के करीब होता है, तो चंद्रमा के गुरुत्वीय बल तक पहुंचने हेतु ईंधन ज्वलित किया जाता है, जिसके बाद अंतरिक्षयान चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश करता है।

लॉन्च विंडोका महत्वः जब 15 जुलाई, 2019 को चंद्रयान-2 का प्रक्षेपण रद्द कर दिया गया था, तो एक उपयुक्त ‘लॉन्च विंडो’ की उपलब्धता के बारे में अनुमान लगाया जा रहा था ताकि उस दौरान चंद्रयान-2 को अंतरिक्ष में भेजा जा सके। पृथ्वी की स्थिति के अनुसार, वर्ष में एक ऐसा समय होता है जिसे अंतरिक्षयान प्रक्षेपित करने के लिए सबसे अच्छा समय माना जाता है, निश्चित रूप से यह इस बात पर निर्भर करता है कि संबद्ध अंतरिक्षयान को अंतरिक्ष में कहां तक पहुंचना है। सामान्यतः ‘लॉन्च विंडो’, एक छोटी अवधि होती है, जिस दौरान विशिष्ट अंतरिक्ष मिशन शुरू किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रक्षेपित यान गंतव्य तक पहुंच जाए। यह अंतरिक्ष में किसी अन्य उपग्रह से संपर्क करने, अंतरिक्ष स्टेशन तक पहुंचने या किसी अन्य ग्रह तक पहुंचने के लिए हो सकता है।

पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर 1,07,000 किमी./घंटा की गति से घूम रही है, और यहां तक कि यह अपनी धुरी पर लगभग 460 मीटर/सेकेंड (या 1,656 किमी./घंटा) की गति से भूमध्यरेखा पर (और अन्य जगहों पर धीमी गति से) घूमती है। उसी समय, चंद्रमा भी पृथ्वी के चारों ओर 3,683 किमी./घंटा की गति से घूम रहा होता है। हालांकि, यह अपनी धुरी पर घूम रहा होता है लेकिन फिर भी इसकी गति पृथ्वी की तुलना में धीमी होती है। चंद्रयान अभियान के मामले में, उपग्रह की यात्रा पृथ्वी और चंद्रमा के बीच थी। इस अभियान के संदर्भ में कई कारक ‘लॉन्च विंडो’ का निर्धारण करते हैं, जिसमें खगोलीय पिंडों के घूमने के तरीकों को भी शामिल किया जाता है।

चंद्रमा पर उतरने (लैंडिंग) के लिए चुने गए क्षेत्र के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि यह क्षेत्र लगभग पृथ्वी के 14 दिनों के बराबर समय के लिए सूर्य का प्रकाश प्राप्त करता है, जबकि इसके बाद के चौदह दिन अंधेरे भरे होते हैं। चंद्रमा की सतह पर किसी अंतरिक्षयान के उतरने का समय ऐसा होना चाहिए कि वह यान, उस स्थान पर सूर्य के प्रकाश से भरे दिनों का अधिकतम लाभ उठा सके, क्योंकि लैंडर एवं रोवर को विद्युत प्राप्त करने तथा पर्याप्त रूप से गर्म रखने हेतु सौर ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यदि लैंडिंग स्पॉट का पृथ्वी से अवलोकन करना हो, तो लैंडिंग का समय चंद्रमा के छठे चरण (पहली तिमाही) के दौरान होना चाहिए ताकि उस स्थान का अवलोकन पृथ्वी से किया जा सके। चंद्रयान-2 को चंद्रमा की कक्षा में भेजते समय यह ध्यान रखा गया कि वह धरती पर मौजूद स्टेशन से दिखाई देना चाहिए, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि उसे कब सतह पर उतारना है। प्रक्षेपण एवं लैंडिंग के बीच का अधिकांश समय विभिन्न कक्षीय परिचालन एवं संचालन को व्यवस्थित करने में लिया जाता है; इस दौरान निर्णय लेने हेतु बहुत कम समय मिलता है। चंद्रयान-2 के प्रक्षेपण के समय इन पहलुओं पर ध्यान रखा गया।

लॉन्च विंडो को दो अलग-अलग समय अंतरालों के लिए परिभाषित किया गया हैः संबद्ध 24 घंटे की अवधि में प्रमोचन के लिए उपयुक्त कुछ घंटों की एक ‘दैनिक विंडो’ मौजूद होती है; संबद्ध महीने (या चंद्रयान के संदर्भ में चंद्र चक्र) के दौरान कुछ दिन प्रमोचन के लिए उपयुक्त होते हैं जिसे ‘मासिक विंडो’ कहा जाता है। लेकिन एक मासिक प्रक्षेपण विंडो, लगातार उपलब्ध नहीं होती। अंतरिक्ष अभियान के परिचालन में लचीलेपन की सुविधा हेतु, दैनिक एवं मासिक प्रक्षेपण विंडो की संख्या जितनी संभव हो, उतनी अधिक होनी चाहिए। एक लंबी ‘दैनिक प्रक्षेपण विंडो’ उड़ान की उल्टी गिनती के दौरान किसी प्रकार की देरी को ठीक करने की सुविधा देती है। चंद्रयान-2 के प्रमोचन हेतु 15 जुलाई का चयन इसलिए किया गया क्योंकि 9 जुलाई से 16 जुलाई के बीच के समय को सबसे अच्छा प्रक्षेपण विंडो माना गया था। इस दौरान अभियान शुरू करने के लिए 10 मिनट या उससे अधिक समय की ‘दैनिक विंडो’ उपलब्ध थी जो वैज्ञानिकों के लिए एक सुविधाजनक स्थिति थी। ऐसा नहीं कि इसके बाद कोई ‘लॉन्च विंडो’ उपलब्ध नहीं होती लेकिन बाद वाले ‘लॉन्च विंडो’ की अवधि बहुत कम थी। 22 जुलाई, 2019 की ‘लॉन्च विंडो’ की अवधि कुछ मिनटों की थी, जिस दौरान सभी कार्यों को सटीकता के साथ पूरा करने की आवश्यकता होती और किसी गलती को सुधारने का अवसर नहीं मिलता।

‘लॉन्च विंडो’ प्रत्येक महीने मिल सकती हैं, लेकिन वास्तव में यह बताया गया था कि यदि किसी तकनीकी बाधा को ठीक करने में अधिक समय लगा तो सभी कारकों पर काम करने के बाद, सितंबर में एक उपयुक्त ‘विंडो’ उपलब्ध होगी। हालांकि, अभियान के लिए तैयार किए गए जटिल कार्यक्रम को देखते हुए, नियोजित चंद्र कक्षा सहित, चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट-लैंडिंग, तथा रोवर के प्रयोगों के लिए सभी योजनाओं एवं तकनीकी पहलुओं में परिवर्तन करना आवश्यक था जिससे मिशन की लागत बहुत बढ़ जाती।

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