भारत के उच्चतम न्यायालय ने 21 अगस्त, 2023 को जाति आधारित सर्वेक्षण के लिए बिहार सरकार को सहमति देने के पटना उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, तथा इस आदेश को चुनौती देने वाले व्यक्तियों और संगठनों के समूह की याचिकाओं को खारिज कर दिया। इसके प्रतिक्रियास्वरूप, केंद्र ने 28 अगस्त, 2023 को एक हलफनामा (एफिडेविट) दायर किया, जिसमें कहा गया कि “किसी अन्य निकाय को जनगणना या जनगणना संबंधी कोई कार्य करने का अधिकार नहीं है”। इस हलफनामे में यह भी कहा गया कि केंद्र “संविधान और लागू विधि के अनुसार एससी/एसटी/एसईबीसी और ओबीसी वर्ग के उत्थान हेतु सभी सकारात्मक कार्रवाई करने के लिए प्रतिबद्ध” है। बिहार सरकार ने तर्क दिया कि उसका कार्य सर्वथा जनगणना करना नहीं, बल्कि केवल एक सर्वेक्षण करना है, जो राज्य में जनकल्याण के लिए किया गया है। गृह मंत्रालय के अनुसार, यह हलफनामा उच्चतम न्यायालय के समक्ष केवल विधि में इस स्थिति का विवरण देने के लिए दिया गया था। हालांकि, 6 अक्टूबर, 2023 को उच्चतम न्यायालय ने बिहार के जाति आधारित सर्वेक्षण के डेटा के प्रकाशन को प्रतिबंधित करने हेतु कोई भी आदेश पारित करने से इनकार कर दिया।

इससे पहले, 25 अगस्त, 2023 को बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा कि, राज्य में जाति आधारित सर्वेक्षण पूरा हो चुका है और राज्य सरकार जल्द ही इस डाटा को सार्वजनिक करेगी। उच्चतम न्यायालय ने बिहार में हाल ही में संपन्न हुए जाति आधारित सर्वेक्षण में एकत्रित डाटा को अपलोड करने पर रोक लगाने की केंद्र की याचिका भी खारिज कर दी। केंद्र ने दावा किया कि बिहार सरकार ने लोगों को अपनी जाति बताने के लिए विवश करके निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया है।

बिहार का जाति आधारित सर्वेक्षण

बिहार सरकार ने लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर विस्तृत जानकारी एकत्र करने के लिए 7 जनवरी, 2023 को दो चरणों में जाति आधारित सर्वेक्षण शुरू किया, ताकि सरकार वंचित समूहों के लिए बेहतर नीतियों का निर्माण कर सके। इस सर्वेक्षण में परिवारों की जाति के साथ-साथ उनकी आर्थिक स्थिति को भी दर्ज किया जाना था। सर्वेक्षण के तहत बिहार के 38 जिलों की 12.70 करोड़ की आबादी का सामाजिक-आर्थिक डाटा एकत्र किया गया। सर्वेक्षण के पहले चरण में 7 से 12 जनवरी, 2023 तक परिवारों की सूची बनाने का कार्य किया गया।

सर्वेक्षण के डाटा एकत्रण का दूसरा चरण 15 अप्रैल, 2023 को शुरू हुआ और 15 मई, 2023 तक इसे पूरा किया जाना था। इस बीच 4 मई, 2023 को पटना उच्च न्यायालय ने इस सर्वेक्षण पर अंतिरिम रोक लगाते हुए कहा कि राज्य सरकार के पास इसे आयोजित करने का विधिक प्राधिकार नहीं है, क्योंकि यह एक जनगणना है।

रोक के आदेश के बाद बिहार सरकार ने मामले की जल्द सुनवाई की मांग करते हुए याचिका दायर की, जिसे पटना उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। अंततः, बिहार सरकार ने इस स्थगन आदेश को निरस्त करने के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की। हालांकि, 18 मई, 2023 को उच्चतम न्यायालय ने यह देखते हुए अनुतोष (रिलीफ) को खारिज कर दिया कि, पटना उच्च न्यायालय द्वारा इस मामले की सुनवाई के लिए अगली तारीख 3 जुलाई, 2023 नियत की गई थी।

पटना उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायमूर्ति के.वी. चंद्रन की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा 3 से 7 जुलाई, 2023 के बीच लगातार सुनवाई की गई। 1 अगस्त, 2023 को पटना उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की कार्रवाई को वैध पाते हुए राज्य सरकार को सर्वेक्षण जारी रखने की अनुमति दे दी। अधिमत (वर्डिक्ट) में कहा गया कि इसे सम्यक् (उचित) सक्षमता से और एक बाध्यकारी लोक हित को आगे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया था।

2 अगस्त, 2023 को बिहार सरकार ने सभी लोगों की जातियों, उपजातियों और धर्मों से संबंधित डाटा के आधार पर सर्वेक्षण के दूसरे चरण पर अपना काम पुनः शुरू किया। 25 अगस्त, 2023 को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बताया कि, जाति आधारित सर्वेक्षण पूरा हो चुका है, डाटा संकलित किया जा रहा है, तथा संचयी डाटा को जल्द ही सार्वजनिक किया जाएगा लेकिन लोगों का वैयक्तिक डाटा संरक्षित किया जाएगा।


अगस्त 2023 में, उच्चतम न्यायालय द्वारा बिहार के जाति आधारित सर्वेक्षण को अनुमोदित किए जाने के पश्चात 2 अक्टूबर, 2023 को बिहार सरकार ने बिहार जाति आधारित गणना-2022 शीर्षक से अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की।

रिपोर्ट के अनुसार, बिहार की कुल जनसंख्या 13 करोड़ से अधिक है, जिसमें से राज्य में जातिगत आधार पर पिछड़ा वर्ग (BC) की आबादी 3,54,63,436 (27.13 प्रतिशत) तथा अति पिछड़ा वर्ग (EBC) की जनसंख्या 7,70,80,514 (36.01 प्रतिशत) है। ये दोनों वर्ग संयुक्त रूप से राज्य की कुल आबादी का 63 प्रतिशत है। इसके अलावा, बिहार में अनुसूचित जाति के 2,56,89,820 (19.65 प्रतिशत) और अनुसूचित जनजाति के 21,99,361 (1.68 प्रतिशत) लोग रहते हैं, जबकि यहां अनारक्षित (या सामान्य) वर्ग की कुल आबादी 2,02,91,679 (15.52 प्रतिशत) है।

उल्लेखनीय है कि रिपोर्ट में बिहार में अधिसूचित कुल 203 जातियों का उल्लेख किया गया है। इनमें से चार जातियों (राजपूत, कायस्थ, ब्राह्मण और भूमिहार) तथा तीन मुस्लिम जातियों (शेख, पठान और सैयद) को अनारक्षित वर्ग में अधिसूचित किया गया है। आरक्षित वर्ग के अंतर्गत रिपोर्ट में 196 जातियों को शामिल किया गया है, जिनमें से 112 जातियों को अति पिछड़ा वर्ग, 30 को पिछड़ा वर्ग, 22 को अनुसूचित जातियों तथा 32 को अनुसूचित जनजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अति पिछड़ा वर्ग में अधिसूचित जातियों में यादवों का 14.26 प्रतिशत तथा कुशवाहा तथा कुर्मी जातियों का क्रमशः 4.27 प्रतिशत तथा 2.87 प्रतिशत प्रतिनिधित्व है।

इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में बिहार सरकार द्वारा राज्य की जनसंख्या का जातिगत डेटा समाविष्ट करने के साथ ही धर्मगत डेटा भी प्रस्तुत किया गया है। इसके अनुसार, बिहार में 10,71,92,958 हिंदू (लगभग 82 प्रतिशत), 2,31,49, 925 मुस्लिम (लगभग 17 प्रतिशत) आबादी है। इनके अलावा, राज्य में ईसाई (75,238), सिख (14,753), बौद्ध (1,11,201), जैन (12,535) समुदाय तथा अन्य धर्मावलंबी तथा धर्म-निरपेक्ष लोग रहते हैं, जो सामूहिक रूप से राज्य की कुल आबादी के एक प्रतिशत से भी कम का प्रतिनिधित्व करते हैं।

ध्यातव्य है कि वर्तमान में बिहार में सरकारी उपक्रमों में आरक्षित वर्गों में ईबीसी को 18 प्रतिशत; एससी को 16 प्रतिशत; ओबीसी को 12 प्रतिशत; ईडब्ल्यूएस को 10 प्रतिशित; आरक्षित वर्ग की महिलाओं (ईडब्ल्यूएस को छोड़कर) 3 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति के एक प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है।


जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता

दरअसल, कई उपेक्षित समूह, अपने आर्थिक कल्याण को यथार्थतः समझने के लिए जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं। पूर्व की जनगणनाएं सामान्य वर्ग के अलावा केवल अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के डाटा पर आधारित थी। वर्तमान में, विभिन्न जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) से संबद्ध अद्यतित आंकड़ों को समझने के लिए OBCs को भी शामिल करने की मांग की जा रही है।

2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) से भारत में मौजूदा जातियों पर एक व्यापक डाटा प्रदान करना अपेक्षित था। 2015 में, एसईसीसी से निर्धनता और वंचन डाटा (पोवर्टी एंड डेप्रिवेशन डेटा) प्राप्त हुए थे, जिससे ज्ञात हुआ कि भारत में जातियों के लगभग 4.6 मिलियन नाम हैं, जिनमें गोत्र, उपनाम, ध्वन्यात्मक विभिन्नताएं आदि शामिल हैं। इससे परिणामों की विवेचना करना असंभव हो गया। कई राजनीतिक दल जातीय जनगणना का समर्थन करते रहे हैं। हालांकि, केंद्र सरकार को इसे आयोजित करने के लिए और अधिक समय चाहिए। यद्यपि एनडीए सरकार वर्ष 2018 में जाति आधारित जनगणना करवाने के लिए सहमत हुई थी, तथापि 2021 में उसने महाराष्ट्र सरकार द्वारा एक और एसईसीसी की मांग को नीतिगत मुद्दों और प्रशासनिक चुनौतियों का हवाला देते हुए खारिज कर दिया।

सामाजिक न्याय प्रदान करने और असमानता को कम करने के लिए कल्याणकारी योजनाओं को वितरित करने और राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए संतुलित नीतियों की आवश्यकता है। हालांकि, जाति जनगणना को बढ़ावा देने को एक चुनावी रणनीति के रूप में देखा जा रहा है।

जाति आधारित जनगणना के लाभ

कुछ विद्वानों के अनुसार, जाति आधारित जनगणना आधिकारिक सांख्यिकीय अभिलेखों (ऑफिशियल स्टैटिस्टिकल रिकॉर्ड) पर रचनात्मक भूमिका निभा सकती है। जाति आधारित जनगणना के पीछे का विचार जाति, जाति आधारित भेदभाव, संपत्ति का जाति आधारित वितरण और जाति द्वारा उत्पन्न सामाजिक-सांस्कृतिक असमानताओं की पहचान करना और उन्हें मिटाना है। अत: इसकी व्यापकता को समझना आवश्यक है। विद्वानों का मानना है कि आधिकारिक सांख्यिकीय अभिलेख वास्तविकता को दर्शाने में सहायक होंगे और OBCs के भीतर गैर-प्रभावशाली जातियों के आसपास के असंतुलन को दूर करेंगे। अंततः, भारत के कम-ज्ञात संकटपूर्ण समूहों की सामाजिक वास्तविकता को दर्शाने वाला एक वास्तविक डाटा सार्वजनिक हो जाएगा।

जाति आधारित जनगणना प्रत्येक भारतीय परिवार की आर्थिक स्थिति और जाति संबंधी अन्य जानकारी को उजागर करेगी। इस डाटा में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के बारे में जानकारी होगी जो सरकारी अधिकारियों को वंचन संकेतकों (डेप्रिवेशन इंडिकेटर) को परिभाषित करने और व्यापक स्तर पर असमानताओं की रूपरेखा तैयार करने में सहायता करेगी। इस डाटा से समाज के वंचित और विशिष्ट वर्गों के लिए बेहतर तरीके से नीति निर्माण किया जा सकेगा। कई राजनीतिक दलों के अनुसार, 1931 में हुई अंतिम जनगणना के आधार पर वर्तमान आरक्षण सही संख्या नहीं दर्शाता है। अतः, जाति आधारित जनगणना से सरकारी अधिकारियों को समाज के विभिन्न वर्गों के उत्थान के लिए काम करने में भी सहायता मिलेगी।

जाति आधारित जनगणना का डाटा सामान्य वर्ग के साथ-साथ आरक्षित वर्ग के बीच आर्थिक और सामाजिक पूंजी उपार्जन के बीच बड़े अंतर को सामने लाकर आरक्षण नीतियों की उपलब्धियों और कमियों को समझने में सहायक होंगे। यह OBCs के लिए सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के मापदंडों की प्रभावशीलता और दक्षता की पहचान करने में भी सहायता करेगा।

कर्नाटक सरकार ने भी 2015 में एक जातीय सर्वेक्षण कराया था। हालांकि, इसने डाटा जारी नहीं किया था।

संविधान में जाति आधारित जनगणना का प्रावधान

भारत के संविधान का अनुच्छेद 340 सरकार को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBCs) की स्थितियों और काम में उनके द्वारा किए जाने वाले संघर्षों की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त करने का अधिकार प्रदान करता है। इस आयोग को SEBCs की स्थितियों में सुधार के लिए ऐसी परेशानियों को दूर करने हेतु केंद्र या किसी राज्य को सिफारिशें करने का काम सौंपा गया है।

जाति आधारित जनगणना का विरोध

आलोचकों के अनुसार, जाति आधारित जनगणना के बाद विभिन्न समुदायों द्वारा नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अधिक आरक्षण की मांग की जा सकती है। 1979 में, SEBCs के बारे में अध्ययन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना की गई थी। इस आयोग ने केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के तहत नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया था। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कुल 49 फीसदी आरक्षण था। उच्चतम न्यायालय ने इंद्रा सहानी निर्णय के माध्यम से आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय की थी। यद्यपि इस सीमा को समाप्त की मांग की जा रही है।

आगे की राह

दशवार्षिक जनगणना 2021 में होने वाली थी। हालांकि, कोविड-19 महामारी के कारण इसमें देरी हुई है। केंद्र ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि वह अगली जनगणना में जाति को शामिल करेगी या नहीं। राजनीतिक रूप से, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जाति जनगणना का विरोध कर रही है क्योंकि यह 2024 के आम चुनावों से पहले उसके हिंदुत्व अभियान के लिए चुनौती खड़ी करेगी। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सहित विपक्षी दल 2011 की जनगणना में एकत्रित जाति आधारित डाटा को जारी करने, तथा आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने और जाति जनगणना कराने की मांग कर रहे हैं।

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