यूनेस्को द्वारा भारत के तीन स्थलों—लेपाक्षी गां­­­व के श्री वीरभद्र मंदिर और एकाश्मक (मोनोलिथिक)   बैल (नंदी); कोंकण क्षेत्र के जियोग्लिफ; और मेघालय के लिविंग रूट ब्रिज (एलआरबी) को 17 मार्च, 2022 को विश्व धरोहर स्थल की अंतरिम सूची (टेंटेटिव लिस्ट) में शामिल किया गया।

विभिन्न देशों के ऐसे विशेष स्थान जिन्हें यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र का शैक्षिक, वैज्ञानिक, और सांस्कृतिक संगठन) के अधीन एक अंतरराष्ट्रीय अभिसमय द्वारा कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाता है, विश्व धरोहर स्थल कहलाते हैं। यूनेस्को द्वारा नामित यह टैग सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक या किन्हीं अन्य महत्वपूर्ण संरचनाओं को प्रदान किया जाता है।

  1. श्री वीरभद्र मंदिर और एकाश्मक बैल

श्री वीरभद्र मंदिर, जिसे लेपाक्षी मंदिर भी कहा जाता है, आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले के लेपाक्षी गांव में स्थित है, जिसका नामकरण वीरभद्र (भगवान शिव के उग्र अवतार) को समर्पित एक मुख्य मंदिर के नाम पर किया गया है। मंदिर की प्रकारा (परिवर्ती दीवार) पर उत्कीर्ण शिलालेखों के कारण इस गांव को लेपाक्ष, लेपाक्षी और लेपाक्षीपुरा के नाम से भी जाना जाता है। ‘लेपाक्षी’ शब्द दो शब्दों के योग से बना हैः लेपा + अक्षी, जिसका अर्थ है—एक संलेपित (किसी अंग को सुरक्षित रखने के लिए उस पर रसायनों का लेप करना) या चित्रित आंख।

यह मंदिर मध्य विजयनगर काल की कला, वास्तुकला और संस्कृति को दर्शाता है। इस मंदिर में विजयनगर काल की मूर्तियों और चित्रों के महत्वपूर्ण उदाहरणों को संरक्षित किया गया है, तथा यह चालुक्यों, होयसालों और काकतीयों की परंपराओं की निरंतरता, रचनात्मक विचारों और ज्ञान का एक अनूठा उदाहरण है, जिसके कारण इसे यूनेस्को की अंतरिम सूची में शामिल किया गया है।

स्थापत्यः यह मंदिर परिसर कछुए के आकार की हल्के ग्रेनाइट की एक पहाड़ी, जिसे कुर्मासैला के नाम से जाना जाता है, पर स्थित है और प्रकारा से घिरा है। इस परिसर के विशाल प्रांगण में निर्मित संरचनाओं (या मंदिरों) को पहाड़ी के तीन अलग-अलग स्तरों पर बनाया गया है। प्रत्येक सरंचना का समूह तीन अलग-अलग कालावधियों (1100-1350 ईस्वी; 1350-1600 ईस्वी; और 1600-1800 ईस्वी) में निर्मित तीन प्रकाराओं अर्थात आंतरिक, मध्य और बाहरी प्रकारा से घिरा हुआ है।

त्रिकूट शैली में निर्मित इस मंदिर का निर्माण आद्यतः वीरभद्र और पापनाशेश्वर के दो चैत्यों के रूप में किया गया था, जो एक ही वेदिका और स्तंभित महा-मंडप के निकट स्थित हैं। तीसरे चैत्य को भी उसी वेदिका पर पश्चिम में निर्मित किया गया था, जो एक साथ आंतरिक प्रकारा, जो रघुनाथ को समर्पित है, के एक हिस्से का निर्माण करते हैं। परिसर के भीतर ग्रेनाइट का एक विशाल बोल्डर (गोल शिलाखंड) है। नाट्य-मंडप इन तीनों चैत्यों के लिए बने सामान्य महा-मंडप से जुड़ा हुआ है। यह मंदिर की सबसे अलंकृत संरचना है। इसकी छत को महाभारत, रामायण और अन्य पौराणिक कथाओं के दृश्यों को दर्शाने वाले भित्ति-चित्रों से चित्रित किया गया है। इससे संलग्नित दूसरे प्रकारा में कल्याण-मंडप, बालीपीठ, वाहन-मंडप और होममंडप शामिल हैं। यह प्रांगण अंतरतम प्रकारा से आच्छादित क्षेत्र के लगभग आठवें हिस्से का आवरण करता है और इसमें दो प्रवेश द्वार हैं—एक उत्तर की ओर तथा दूसरा दक्षिण की ओर। आंतरिक प्रकारा के भीतर मुख्य मंदिर के दक्षिण में गणेशलिंग की एक विशाल अखंड मूर्ति स्थापित है, जिसमें दो स्तंभ हैं, जिन्हें गणेश मंडप के नाम से जाना जाता है।

मूर्तिकला—एकाश्मक बैल (नंदी): इस मंदिर परिसर की एक अन्य विशेषता ग्रेनाइट की एक विशाल चट्टान पर उत्कीर्ण की गई नंदी की भीमकाय प्रतिमा है। यह एकाश्मक मूर्ति अपनी तरह का एक अनूठा उदाहरण है। इसका मुख पश्चिम की ओर है, जो श्री वीरभद्र मंदिर में स्थित नाग-लिंग की ओर देख रहा है। दूसरे प्रांगण में ग्रेनाइट के एक शिलाखंड के पूर्वी हिस्से में, सात फणों वाले नाग की एक एकाश्मक मूर्ति से ढका बैसाल्ट (ज्वालामुखी से निकलने वाला काला पत्थर) का एक शिवलिंग है। हिंदू पौराणिक कथाओं, पौराणिक मान्यताओं और परंपराओं के अलग-अलग विषयों पर आधारित  मूर्तिकला और स्तंभों, मंडपों की छतों और प्राकृतिक रूप से मौजूद ग्रेनाइट के शिलाखंड जैसे मंदिर के विभिन्न भागों पर उत्कीर्ण वनस्पतियों और जीवों की आकृतियां इस मंदिर के सौंदर्य-मूल्य में वृद्धि करती हैं।

चित्रकलाः यह मंदिर मध्यकाल के विजयनगर शासनकाल में बनाए गए सजीव भित्ति-चित्रों का एकमात्र साक्षी है। यहां के भित्ति-चित्रों में उपयोग की गई तकनीक को फ्रेस्को-सेको (भित्ति-चित्र की एक तकनीक, जिसे चूने के ताजा प्लास्टर पर बनाया जाता है।) के रूप में जाना जाता है। मंडपों और प्रदक्षिणापथ की छतों, तथा दीवारों पर निर्मित भित्ति-चित्र रामायण और महाभारत के दृश्य, शिव-पार्वती के विवाह, किरातार्जुनीयम्, शिव के विभिन्न रूप, द्रौपदी स्वयंवर और विरुपन्ना एवं उनके भाइयों द्वारा वीरभद्र की पूजा करने जैसी पौराणिक कहानियों और देवताओं को दर्शाते हैं।

  1. कोंकण क्षेत्र के जियोग्लिफ

कोंकण क्षेत्र (दक्षिण-पश्चिमी महाराष्ट्र से दक्षिणी कर्नाटक तक) के लैटेराइट पठारों (इसे मराठी में सदा कहते हैं) पर निर्मित जियोग्लिफ मध्यपाषाण युग (10 हजार वर्ष पूर्व) से पूर्वकालीन ऐतिहासिक युग (1.7 हजार वर्ष पूर्व) तक इस क्षेत्र में की गई शैल उत्कीर्णन कला या शैल चित्रों की प्रागैतिहासिक मानव अभिव्यक्ति का सबसे उल्लेखनीय रूप है।


शैल चित्र: रॉक पेंटिंग्स या शैल चित्रों को शैल आश्रयों की दीवारों पर चित्रित किया जाता है। मध्य भारत में और भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी भागों में शैल चित्रों की अधिकता पाई जाती है।

पेट्रोग्लिफः ऊर्ध्वाधर सतहों या शिलाखंडों पर उकेरी गई नक्काशियों को पेट्रोग्लिफ या शैलोत्कीर्ण कहते हैं। शैलोत्कीर्ण उपमहाद्वीप में हिमालय के अत्यधिक बर्फीले क्षेत्रों, पूर्वोत्तर और भारतीय प्रायद्वीपीय क्षेत्र के दक्षिणी भागों में व्यापक रूप से पाए जाते हैं।


जियोग्लिफ क्या हैं

जियोग्लिफ एक प्रकार की शैल चित्रकलाएं हैं, जिन्हें धरती की सतह पर या तो चट्टानों अथवा चट्टानों के टुकड़ों को निश्चित स्थान पर रखकर या रिडक्शन तकनीक [एक डिजाइन (अभिकल्प) बनाने के लिए चट्टान की सतह के हिस्से को निकालना या हटाना] द्वारा निर्मित किया जाता है। आकार और कोटि के संदर्भ में जियोग्लिफ मानव की रचनात्मक कला की प्रतीकात्मक व्याख्या हैं। समय की सबसे बड़ी अवधि के साक्ष्य, जियोग्लिफ विश्व भर में मौजूद हैं और पुरापाषाण काल की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक अभिव्यक्ति हैं।

कोंकण क्षेत्र में अवस्थित जियोग्लिफ मानव बस्तियों की मौजूदगी के एकमात्र साक्ष्य हैं और इनकी शैलीगत विशेषताओं के एक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि ये मध्यपाषाण युग से पूर्वकालीन ऐतिहासिक युग तक निरंतर विद्यमान, और संभवतः अन्य दक्कनी ताम्रपाषाण संस्कृतियों के समकालीन थे। इसके अलावा, ये कुछ विशेष प्रकार के जीव-जंतुओं के अस्तित्व के प्रमुख प्रमाण भी हैं, जो वर्तमान में इस क्षेत्र में नहीं पाए जाते।

अरब सागर के तट पर कोंकण क्षेत्र के उत्तर से दक्षिण तक, लगभग 900 किमी. की दूरी तक फैले जियोग्लिफ के ये समूह, कोंकण में संस्कृति के विकास की प्रारंभिक प्रक्रिया को दर्शाते हैं और यहां के प्रागैतिहासिक जीवन का दृश्य प्रदान करते हैं। जियोग्लिफ के इन समूहों के बिंबविधान और विषय-वस्तु को इस बात के लिखित प्रमाण के रूप में भी समझा जा सकता है कि किस प्रकार लोग सूखे-शुष्क पठार में उथले रॉक पूल (ज्वार पूल, समुद्री जल का एक उथला पूल है, जो अंतर्ज्वारीय तट पर चट्टानों के बीच बनता है।), धाराओं और जलकुंडों में अल्पकालिक आर्द्रभूमि के प्रति अनुकूलित हो सकते हैं, जो स्थानिक और संकटग्रस्त जलीय जीवों, जैसे मछली, उभयचर, कीट आदि की समृद्ध विविधता का आधार हैं। ये न केवल कोंकण और दक्कन क्षेत्र के ज्ञान-अंतराल के बीच की कड़ी को जोड़ते हैं, बल्कि मानव स्वभाव के लचीलेपन और जलवायु में अत्यधिक उतार-चढ़ाव के अनुकूलन पर चल रहे शोध के लिए भी कड़ी प्रदान करते हैं।

भारत के कोंकण क्षेत्र में अवस्थित 600 से अधिक ज्योग्लिफ सबसे व्यापक, बेहतर ढंग से संरक्षित एवं कलात्मक रूप से विशिष्ट जियोग्लिफ हैं, और 12,000 वर्षों की सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इनकी विषय-वस्तु, संरचना, कोटि, चित्रों की गुणवत्ता और कलात्मक तकनीक न केवल मुख्य रूप से प्राणिजात व्यवहार की विभिन्नता पर एक अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं, बल्कि पत्थर पर अमूर्त और मानवजनित रूपों को चित्रित करने की प्रवृत्ति को भी दर्शाती हैं। इसके अलावा, ये जियोग्लिफ कलात्मक कौशल की कुशलता के विकास, और नक्काशी एवं उत्कीर्णन (स्कूपिंग) की तकनीकों के विकास को दर्शाते हैं, जो शैल कला में महारत हासिल करने के मूल तत्व हैं।

चयनित जियोग्लिफः महाराष्ट्र और गोवा में फैले जियोग्लिफ के समूह में से निम्नलिखित 9 को  विश्व धरोहर स्थल की अंतरिम सूची में शामिल किया गया हैः

(i) जम्भरुन (महाराष्ट्र): जम्भरुन नामक गांव के निकट पाए गए 50 जियोग्लिफ लगभग 25×25 मी. के विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए हैं। ये अमूर्त नक्काशी के साथ मानव और पशु मूर्तियों का एक दिलचस्प संयोजन प्रस्तुत करते हैं।

(ii) उक्शी (महाराष्ट्र): इस स्थल पर एक हाथी का 6×5.40 मी. बड़ा, एकमात्र जियोग्लिफ मौजूद है।

(iii) काशेली (महाराष्ट्र): यहां भारतीय संदर्भ में, सबसे बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण एक जियोग्लिफ में 18×13 मी. आकार के एक हाथी की बड़ी आकृति है, जिसकी विशेषता हाथी की रूपरेखा के भीतर उकेरकर बनाई गई 70-80 जलीय और स्थलीय पशु-पक्षियों की आकृतियां हैं। हालांकि, हाथी की बड़ी आकृति के बाहर भी कुछ नक्काशी की गई है।

(iv) रुंधेतालीः एक जटिल रूप से परिकल्पित अमूर्त ज्योग्लिफ में एक अद्भुत गोलाकार बृहत आकृति बनाई गई है, जिसके बीच में एक आयताकार उभरे हुए चित्र के साथ एक लंबे किनारे सहित चार गोलाकार चित्र हैं। इन प्रक्षेपित चित्रों में एक क्रॉस प्रकार की आकृति है। मुख्य गोलाकार आकृति में दो और ह्रासमान वृत्त हैं।

(v) देवी हसोल (महाराष्ट्र): इस स्थल में अवस्थित जियोग्लिफ, उच्च उभार में अमूर्त नक्काशी का एक पैनल है। अमूर्त आकृति 8.5×8.5 मी. क्षेत्र में फैली हुई है। इसमें एक आयत में घटते क्रम के तीन और आयत हैं, जिसके अंदर लहराती नक्काशी से बनी एक आयताकार आकृति को प्रत्येक कोने में क्रॉस चिह्न के साथ चित्रित किया गया है।

(vi) बारसू (महाराष्ट्र): बारसू के पठार पर 62 से अधिक जियोग्लिफ हैं। यह कोंकण के तटीय क्षेत्र में जियोग्लिफ का सबसे बड़ा समूह है। इनमें से एक में मनुष्य और दो बाघों की लार्जर-दैन-लाइफ (अनुपातहीन रूप से बड़ी) नक्काशी है, जो 17.5×4.5 मी. के क्षेत्र में फैली हुई है।

(vii) देवाचेगोठाने (महाराष्ट्र): इस स्थल में प्रायः विशाल खुले समतल क्षेत्र के बीच एक पठार पर एक खड़ी हुई मानव आकृति के रूप में एकल जियोग्लिफ है। इस नक्काशी के चारों ओर चुंबकीय विक्षेपण की एक असामान्य घटना—जैसे-जैसे कोई इससे दूर जाता है इसकी प्रबलता कम होती जाती है—दर्ज की गई है। इस चुंबकीय गतिविधि को समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता है।

(viii) कुडोपी (महाराष्ट्र): सिंधुदुर्ग जिले के कुडोपी के पास लैटेराइट के एक पठार पर लगभग 80 जियोग्लिफ हैं, जो तीन समूहों में हैं। इसमें कूबड़ वाले मवेशियों, हिरण, सूअर आदि जीवों के साथ-साथ त्रिकोणीय, आयताकार और वृत्ताकार अमूर्त अभिकल्पों को चित्रित किया गया है।

(ix) पानसेमल (गोवा): यह स्थल गोवा में कुशावती नदी के तट पर स्थित है। यहां जियोग्लिफ का एक बड़ा समूह है, जिसमें कूबड़ वाले मवेशियों, मोर, हिरण, जंगली सूअर तथा मवेशियों के खुरों के अलावा, मानव आकृतियों, अंगूठियों आदि का चित्रण किया गया है।

  1. लिविंग रूट ब्रिज

मेघालय के 72 गांवों में मौजूद 100 से भी अधिक लिविंग रूट ब्रिज न केवल पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं बल्कि मेघालय की धरोहर के प्रतीक भी हैं। मेघालय में सिंगल टू डबल डेकर लिविंग रूट ब्रिज मौजूद हैं, जिनमें गंभीर रूप से संकटापन्न वनस्पतियों और जीवों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं।

लिविंग रूट ब्रिज, जिन्हें स्थानीय भाषा में जिंगकिएंग जरी (Jingkieng Jri) कहा जाता है, मानव निर्मित पुल हैं( ये एक प्रकार के झूला पुल (Suspension bridge) हैं, जिन्हें भारतीय रबड़ के पेड़—गूलर [Ficus या गूलर—मोरेसी (Moraceae) वर्ग में काष्ठ के पेड़ों, झाड़ियों, लताओं, अधिपादपीय (एपिफाइट्स) और अर्धाघिपादप (होमीपिफाइट्स) की लगभग 850 प्रजातियों में से एक प्रजाति है।] की जड़ों को एक संकरी नदी या धारा के आर-पार ब्रिज के आकार में निर्मित किया जाता है। हालांकि, जीवित जड़ों को ब्रिज (पुल) के रूप में आकार लेने और पूरी तरह से मजबूत होने में 10-15 वर्ष का समय लगता है, लेकिन इनका जीवनकाल 500 वर्षों से भी अधिक हो सकता है। माना जाता है कि इनमें से कुछ पुल सैकड़ों वर्ष पुराने हैं। एक बार पूरी तरह से तैयार हो जाने पर, इन पुलों के ऊपर से एक बार में 50 लोग आवाजाही कर सकते है।

यद्यपि खासी समुदाय द्वारा इन पुलों को बनाए जाने की परंपरा के सूत्रपात का समय अज्ञात है, तथापि सबसे पहले 1844 में जर्नल ऑफ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में चेरापूंजी के लिविंग रूट ब्रिज (पुलों) का उल्लेख किया गया था।

महत्वः स्थानीय खासी आदिवासी समुदायों द्वारा निर्मित ये संरचनात्मक पारिस्थितिक तंत्र (लिविंग रूट ब्रिज) सदियों से कठोर जलवायु परिस्थितियों में स्थिर बने हुए हैं, और मनुष्यों तथा प्रकृति के बीच गहरा सामंजस्य स्थापित करते हैं। ये लिविंग रूट ब्रिज पृथ्वी के सबसे नम क्षेत्र और उसके निकट के 75 से अधिक दूरस्थ गांवों के बीच संयोजकता और आपदा के प्रति लचीलेपन की सुविधा प्रदान करने के अलावा खासी समुदाय द्वारा वृक्षों की जड़ों से किए जाने वाले सरल प्रयोग में प्रकट होने वाली महत्वपूर्ण अभियांत्रिकी और वानस्पतिक विशेषताओं को उजागर कर उनकी प्राचीन संस्कृति की उत्कृष्ट सूझ-बूझ और लचीलेपन की पुष्टि करते हैं, जहां सामूहिक सहयोग एवं पारस्परिकता जीवन के मूलभूत अंग थे।

जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, शहरी परिस्थितियों में लिविंग रूट ब्रिजों को भविष्य की वानस्पतिक सरंचना की परियोजनाओं हेतु एक संदर्भ बिंदु माना जा सकता है। अध्ययन में सुझाव दिया गया है कि पारंपरिक तकनीकों से संबंधित परिणाम आधुनिक स्थापत्यकला के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्रदान करने हेतु मानदंड

किसी स्थल को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा प्रदान किया जाता है, यदि वह—

(i) मानव रचनात्मक प्रतिभा की उत्कृष्ट कृति का निरूपण करता हो;

(ii) एक समयावधि या विश्व के किसी सांस्कृतिक क्षेत्र में स्थापत्यकला या प्रौद्योगिकी, स्मारकीय कला, नगर नियोजन या प्राकृतिक दृश्य की अभिकल्पना के विकास में महत्वपूर्ण मूल्यों के आदान-प्रदान का प्रदर्शन करता हो;

(iii) किसी सांस्कृतिक परंपरा या किसी विद्यमान या लुप्त हो चुकी सभ्यता का कोई अद्वितीय या कम से कम विशेष प्रमाण प्रस्तुत करता हो;

(iv) कोई इमारत, स्थापत्य या तकनीकी कला अथवा परिदृश्य, जो मानव इतिहास के किसी पड़ाव (या किन्हीं पड़ावों) का उत्कृष्ट दृष्टांत प्रस्तुत करता हो;

(v) कोई ऐसी पारंपरिक मानव बस्ती, जो किसी संस्कृति (या संस्कृतियों) की प्रतिनिधि हो अथवा भूमि या समुद्र-उपयोग, जो पर्यावरण के साथ मानव संपर्क, विशेषकर अपरिवर्तनीय प्रभाव के कारण अतिसंवेदनशील हो गया हो;

(vi) सार्वभौमिक महत्व के उत्कृष्ट कलात्मक और साहित्यिक कार्यों के माध्यम से घटनाओं या जीवित परंपराओं, विचारों अथवा भावनाओं से प्रत्यक्ष या मूर्त रूप से जुड़ा हो;

(vii) सर्वोत्कृष्ट प्राकृतिक घटनाओं या अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य और कलात्मक महत्व के क्षेत्रों को शामिल करता हो;

(viii) पृथ्वी के इतिहास के प्रमुख चरणों (जिसमें जीवन के कीर्तिमान, भू-आकृतियों के विकास के लिए चलने वाली महत्वपूर्ण भू-वैज्ञानिक प्रक्रियाएं या महत्वपूर्ण भू-आकृतिक अथवा भौगोलिक विशेषताएं शामिल हों) का प्रतिनिधित्व करने वाला श्रेष्ठ उदाहरण हो;

(ix) स्थलीय, जलीय (मीठे पानी), तटीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र तथा पौधों एवं जीवों की क्रमागत उन्नति और विकास के समय चल रही महत्वपूर्ण पारिस्थितिक और जैविक प्रक्रियाओं को दर्शाने वाला श्रेष्ठ उदाहरण हो; और

(x) जैव विविधता के यथास्थान संरक्षण के लिए अत्यावश्यक एवं महत्वपूर्ण प्राकृतिक आवासों (जिसमें विज्ञान या संरक्षण की दृष्टि से सार्वभौमिक महत्व की संकटापन्न प्रजातियां शामिल हैं) को समाहित करता हो।

श्री वीरभद्र मंदिर और एकाश्मक बैल को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की अंतरिम सूची में मानदंड (i), (ii), (vi) के आधार पर शामिल किया गया है।

कोंकण क्षेत्र के जियोग्लिफ समूह को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की अंतरिम सूची में मानदंड (i), (iii) और (iv) के आधार पर शामिल किया गया है।

लिविंग रूट ब्रिज को यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की अंतरिम सूची में मानदंड (i), (iii), और (vi) के आधार पर शामिल किया गया है।


टेंटेटिव लिस्ट

विश्व धरोहर स्थल की अंतरिम सूची या टेंटेटिव लिस्ट उन परिसंपत्तियों की “इन्वेंटरी” (विस्तृत सूची) है, जिन्हें यूनेस्को के अंतरराष्ट्रीय अभिसमय के सदस्य देश सार्वभौमिक महत्व की अपनी उत्कृष्ट सांस्कृतिक और/या प्राकृतिक विरासत मानते हैं, और इसलिए उन्हें विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल करने हेतु उपयुक्त समझते हैं। अंतरिम सूची उन स्थलों का पूर्वानुमान प्रदान करती है, जिन्हें एक देश अगले पांच से दस वर्षों में विश्व धरोहर स्थल के रूप में अभिलिखित करने के लिए प्रस्तुत करने का निर्णय ले सकता है। किसी देश की अंतरिम सूची में शामिल कोई स्थान स्वतः विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकता।

अंतरिम सूची एक राष्ट्र की उत्कृष्ट प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत को विश्व धरोहर स्थल की सूची में नामांकन हेतु भेजने की योजना बनाने तथा अनुशंसा करने के लिए साधन प्रदान करती है, और उस संदर्भ का आकलन करने में विश्व विरासत समिति की सहायता करती है, जिसके आधार पर किसी देश के विशेष स्थलों के नामांकन भेजे जाते हैं।

अंतरिम सूची अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि विश्व विरासत समिति, विश्व के किसी स्थल या स्मारक को धरोहर स्थल की सूची में अभिलिखित करने के लिए प्रेषित नामांकन पर तब तक विचार नहीं कर सकती, जब तक कि उसे पहले से ही उस देश के धरोहर स्थल की अंतरिम सूची में शामिल न किया गया हो।


लाभ

धरोहर स्थल का टैग प्राप्त करने के कई लाभ हैं। सुरक्षा और प्राकृतिक वातावरण के संरक्षण से लेकर पर्यटन के अवसरों तक—धरोहर स्थलों से नए रोजगार के सृजन, स्थानीय व्यवसायों को बढ़ावा मिलने जैसे कई आर्थिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। टैग के माध्यम से स्थलों का परिरक्षण (प्रिजर्व) किया जा सकता है। साथ ही उस स्थान के सांस्कृतिक मूल्य को भी उचित मान्यता मिलती है, जिसका वह पात्र है।

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