गिद्ध की प्रजातियां: विश्व में गिद्धों की 23 प्रजातियों में से अधिकांश उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप और एशिया में पाई जाती हैं। ऑस्ट्रेलिया में गिद्ध नहीं पाए जाते। गिद्धों की लगभग 16 प्रजातियां पुरानी दुनिया अर्थात ओल्ड वर्ल्ड (एशिया, अफ्रीका और यूरोप के संदर्भ में पश्चिमी देशों में उपयोग किया जाने वाला शब्द) से और सात प्रजातियां नई दुनिया अर्थात न्यू वर्ल्ड (अमेरिका के उत्तर, दक्षिण और मध्य भू-भाग के लिए प्रयुक्त शब्द) से प्रतिवेदित की गई हैं। कैलिफोर्नियन और ऐंडियन गिद्ध ‘कॉण्डर’ कहलाते हैं। इन 16 प्रजातियों में से आठ प्रजातियां जिप्स प्रजाति की हैं। इन गिद्धों को ऑक्सीपिट्रिडी और ऑर्डर ऑक्सीपिट्रिफोर्मेस परिवार में रखा गया है, क्योंकि वे पुरानी दुनिया के गिद्धों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से पांच प्रजातियां जिप्स प्रजाति की हैं: बंगाल का गिद्ध या पूर्वी सफेद पीठ वाला गिद्ध अथवा ओरिएंटल व्हाइट-बैक्ड वल्चर (ओडब्ल्यूबीवी), भारतीय गिद्ध या लॉन्ग-बिल्ड वल्चर (एलबीवी), लंबी चोंच वाला गिद्ध या स्लेंडर-बिल्ड वल्चर (एसबीवी)—ये तीनों भारत में निवास करने वाली प्रजातियां हैं; हिमालयी गिद्ध—जिप्स हिमालयनसिस या हिमालयन वल्चर (एचवी), जो मुख्य रूप से शीत ऋतु में नजर आता है यानी केवल शीत ऋतु में ही भारत आता है; और भूरा गिद्ध—जिप्स फलवस या यूरेशियन ग्रिफन (ईजी), जो पूरी तरह से शीत ऋतु में ही दिखाई देता है। अन्य चार प्रतिरूपी (अर्थात, इन प्रजातियों में केवल एक सदस्य होता है; कोई उप-प्रजातियां या छोटी, अंतःजातीय श्रेणी नहीं होती। उदाहरणार्थ, एशियाई राजा गिद्ध, भारतीय काला गिद्ध—सारकोजिप्स कैल्वस या लाल सिर वाला गिद्ध (आरएचवी), सफेद गिद्ध—नियोफ्रॉन पर्क्नोप्टरस जिनजिनजियैनस या इजिप्शियन वल्चर (ईवी), जीपेटस बर्बटस या दाढ़ी वाला गिद्ध—बियर्डिड वल्चर (बीवी); ये सभी प्रजातियां केवल भारत में ही निवास करती हैं, और एजिपियस कैल्वस या काला गिद्ध—सिनेरियस वल्चर (सीवी), जिसे केवल शीत ऋतु में ही देखा जा सकता है।
गिद्धों का महत्वः गिद्ध प्रकृति के सबसे कुशल अपमार्जक यानी सड़ा-गला मांस खाने वाले जंतु हैं, जिन्होंने उस समय भारत में पर्यावरण को स्वच्छ रखा, जब शवों और बूचड़खाने के अपशिष्ट के लिए प्रभावी निपटान प्रणालियों की कमी थी। रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया और कवकों के उत्पन्न होने एवं उनकी वृद्धि से पहले ही इन गिद्धों ने शवों का परिशोधन करके संक्रामक रोगों अथवा महामारी के प्रकोप को रोका। संयोग से, सड़े हुए मांस का सेवन करने से गिद्ध प्रभावित नहीं होते। गिद्धों की संख्या में गिरावट आने के कारण अस्वस्थ पशुओं के शव, भूजल सुरक्षा को प्रभावित कर सकते हैं, और तपेदिक (टीबी) एवं गिलटी रोग अर्थात एंथ्रेक्स जैसे पशुजनित रोगों के प्रसार में भूमिका निभा सकते हैं। भोजन की बढ़ती उपलब्धता के साथ, स्थानिक जंगली कुत्तों की आबादी में वृद्धि देखी जा रही है; जिसके कारण मानव और वन्यजीव, दोनों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं क्योंकि कुत्ते रेबीज, मनोविकार और कैनाइन पर्वोवायरस (कुत्तों को होने वाली बीमारी) जैसे कई रोगों को संचारित करते हैं, जो मनुष्यों, वन्यजीवों और पशुधन को संक्रमित कर सकते हैं।
दुनिया के कई समुदायों में गिद्धों का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व भी है। पारसी लोग मृत शरीरों को गिद्धों के भक्षण हेतु छोड़ देते हैं। गिद्धों द्वारा मवेशियों के मांस का उपभोग कर छोड़ी गई हड्डियों को उर्वरक के रूप में उपयोग करने के लिए एकत्रित किया जाता था।
हाल के समय में गिद्धों की मृत्यु के कारणः एनएसएआईडी से विषाक्तताः बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) और रॉयल सोसाइटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स (आरएसपीबी) ने वर्ष 2004 में अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि पशु चिकित्सकों द्वारा उपयोग किए जाने वाले डिक्लोफेनाक से संक्रमित शवों को खाने के कारण गिद्धों की मृत्यु हो रही थी। यह पाया गया कि पशु चिकित्सकों द्वारा मवेशियों के इलाज में प्रयुक्त गैर-स्टेरॉयड सूजन-रोधी दवाएं (एनएसएआईडी) गिद्धों के लिए विषाक्त थीं। संक्रमित पशुओं के शवों को खाने के कारण ये डिक्लोफेनाक, एसीक्लोफेनेक और केटोप्रोफेन जैसी गैर-स्टेरॉयड सूजन-रोधी दवाएं गिद्धों के शरीर में प्रवेश कर जाती हैं, जिसके फलस्वरूप उनके गुर्दे खराब हो जाते हैं तथा अंततः उनकी मौत हो जाती है।
अनभिप्रेत विषाक्तताः पशु चिकित्सकों द्वारा एनएसएआईडी देने के अलावा, गिद्धों की मृत्यु अनभिप्रेत या प्रतिकार विषाक्तता के कारण भी संभव है; ऐसा तब होता है जब कोई मवेशी मालिक या किसान या तो जंगली कुत्तों अथवा जंगली परभक्षियों द्वारा अपने मवेशियों की हत्या किए जाने पर, उनके शवों को ऑर्गेनो-क्लोरीन या ऑर्गेनो-फॉस्फेट से भर देता है। यद्यपि विषाक्तता की ऐसी घटनाएं इतनी आम नहीं हैं कि इन्हें गिद्धों की आबादी में आई भारी गिरावट के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सके, तथापि मानव-पशु के बीच बढ़ते संघर्षों को देखते हुए यह एक महत्वपूर्ण कारण बन सकता है। यहां तक कि शवों की आकस्मिक अनभिप्रेत विषाक्तता से गिद्धों की स्थानीय प्रजाति विलुप्त हो सकती है, क्योंकि गिद्धों की आबादी पहले से ही बहुत कम हो चुकी है। एक अन्य बड़ी समस्या गहन कृषि कीटनाशकों की आसान उपलब्धता है, जैसेकि कार्बामेट्स (फुराडन), फोरेट, फॉस्फामिडन, मैलाथियन और मोनोक्रोटोफॉस; कभी-कभी इनका उपयोग प्रतिकार विषाक्तता के लिए किया जाता है।
ऊर्जा अवसंरचना के साथ होने वाले टकरावः एशिया और मध्य-पूर्व में इस खतरे के बारे में अधिक विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन गुजरात में एक पवन चक्की संयंत्र की एक वर्ष तक निगरानी करने पर प्राप्त पक्षी मृत्यु दर इस बात की पुष्टि करती है कि पक्षी टर्बाइनों से टकरा जाते हैं। हालांकि, अध्ययन में गिद्धों की मृत्यु दर्ज नहीं की गई। अफ्रीका और यूरोप से प्राप्त जानकारी के अनुसार, पावर ग्रिडों की बढ़ती सघनता को देखते हुए इन जोखिमों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
विद्युत्मारण (इलेक्ट्रोक्यूशन): विद्युतीकरण के कारण बिजली के खंभों या तारों पर पक्षियों की होने वाली मृत्यु एक वैश्विक समस्या है। गिद्ध, बाज, और सारस (स्टॉर्क) जैसी बड़ी प्रजातियां विशेष रूप से असुरक्षित हैं। पुराने तरीके से किए गए डिजाइन और विद्युत तापावरोधक (इन्सूलेटिड) खंभों, तथा गलत स्थानों पर स्थित विद्युत लाइन (तार) से विद्युत-आघात जनित मृत्यु का जोखिम हो सकता है।
भारत में गिद्धों की घटती आबादीः 1980 के दशक तक भारत में गिद्ध लगभग सभी जगह पाए जाते थे, और तीन स्थानिक जिप्स प्रजातियों—ओडब्ल्यूबीवी, एलबीवी और एसबीवी—की अनुमानित संख्या लगभग 40 मिलियन थी। बॉम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी द्वारा वर्ष 2015 में किए गए सर्वेक्षण और 2017 में प्रकाशित परिणामों के आधार पर, लगभग 6,000 ओडब्ल्यूबीवी, 12,000 एलबीवी और 1,000 एसबीवी शेष रह गए थे, जबकि 2017 तक इनकी कुल संख्या घटकर लगभग 19,000 रह गई थी। 1990 के दशक से वर्ष 2007 के बीच, 99 प्रतिशत प्रजातियों के पूर्णतया नष्ट होने के साथ ही, इन तीनों प्रजातियों की संख्या में भारी गिरावट आई। आरएचवी की संख्या में 91 प्रतिशत की, जबकि ईवी की संख्या में 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। वर्ष 2004 में, गिद्धों की आबादी में आई भारी गिरावट का कारण—डिक्लोफेनाक, एक पशु चिकित्सा-संबंधी एनएसएआईडी को सिद्ध किया गया।
आईयूसीएन रेड डेटा बुक के अनुसार, चार स्थानिक प्रजातियां, अर्थात ओडब्ल्यूबीवी, एलबीवी, एसबीवी और आरएचवी गंभीर रूप से संकटापन्न हैं; ईवी विलुप्तप्राय है; सीवी और एचवी प्रायः संकट में हैं। हालांकि, वर्तमान में ईजी प्रजाति की संख्या कम चिंताजनक है।
उल्लेखनीय है कि 1990 के बाद से प्रत्येक चार वर्ष में बीएनएचएस द्वारा राष्ट्रव्यापी गिद्ध सर्वेक्षण किए जा रहे हैं, जिसे केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और विभिन्न राज्यों के वन विभागों द्वारा प्रायोजित किया जाता है।
भारत की कार्य योजना 2006: गिद्धों की संख्या में गिरावट का संज्ञान लेते हुए भारत के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गिद्धों को संभावित विलुप्ति से बचाने के उद्देश्य से गिद्ध संरक्षण कार्य योजना (एपीवीसी) 2006 जारी की गई।
उद्देश्यः एपीवीसी 2006 के मुख्य उद्देश्य थेः
- गिद्ध मृत्यु दर के लिए मुख्य रोगकारक (डिक्लोफेनाक) का निस्तारण करना;
- पशु चिकित्सा क्षेत्र में मानव निर्मित डिक्लोफेनाक के दुरुपयोग की रोकथाम;
- गिद्धों के मौजूदा निवास स्थानों का संरक्षण और पुनर्वास की निगरानी;
- गिद्ध देखभाल एवं प्रजनन केंद्रों की स्थापना और उनका विस्तारीकरण;
- भविष्य में गिद्धों की मृत्यु दर को नियंत्रित किया जाए;
- विशेष रूप से पशु चिकित्सा सूत्रण के उपयोगकर्ताओं के बीच जागरूकता बढ़ाई जाए; और
- कार्य योजना के कार्यान्वयन की निगरानी की जाए।
परिणामः पर्यावरण मंत्रालय ने इस कार्य योजना को लागू करने के लिए राज्य के वन विभागों और बीएनएचएस के साथ मिलकर काम किया, तथा वर्ष 2011 तक गिद्ध की आबादी में आई गिरावट पर रोक लगाने में कुछ हद तक सफल रहा।
वर्ष 2006 में ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने पशु चिकित्सा में डिक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, वर्ष 2015 में डीसीजीआई ने पशुओं के इलाज में डिक्लोफेनाक के दुरुपयोग को रोकने के लिए इसकी मानव संरूपित (खुराक की) वायल के आकार को भी सीमित कर दिया। प्रत्येक चार वर्ष में एक बार किए जाने वाले राष्ट्रव्यापी ‘रोड ट्रांसैक्ट सर्वेज’ के माध्यम से पूरे देश में गिद्धों की आबादी पर नजर रखी जाती है। केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (सीजेडए) और बीएनएचएस ने सफलतापूर्वक गिद्ध संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम की स्थापना की; गंभीर रूप से लुप्तप्राय तीनों स्थानिक जिप्स प्रजातियों का प्रजनन पहली बार प्रजनन केंद्रों में करवाया गया। हरियाणा के पिंजौर, पश्चिम बंगाल के राजाभातखावा, असम की रानी, मध्य प्रदेश के भोपाल के पास केरवा, गुजरात के जूनागढ़, ओडिशा के नंदनकानन, तेलंगाना के हैदराबाद और झारखंड के रांची के पास स्थित मुता में आठ प्रजनन केंद्र स्थापित किए गए हैं। पहले चार केंद्रों का प्रबंधन बीएनएचएस और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के सहयोग से संबंधित राज्य वन विभागों द्वारा किया जाता है, और अन्य चार केंद्र राज्यों के चिड़ियाघरों में स्थापित हैं तथा सीजेडए के सहयोग से राज्य वन विभागों द्वारा संचालित किए जा रहे हैं।
भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) ने डिक्लोफेनाक के सुरक्षित विकल्प की पहचान करने के लिए एक शोध अध्ययन किया। मेलोक्सिकैम को डिक्लोफेनाक के विकल्प के रूप में पाया गया, जो गिद्धों के लिए सुरक्षित साबित हुआ। आईवीआरआई, गिद्धों पर बाजार में उपलब्ध पशु चिकित्सा संबंधी एनएसएआईडी के सुरक्षा परीक्षण पर पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा प्रायोजित परियोजना के अनुसंधान का नेतृत्व भी कर रहा है। हरियाणा के पिंजौर में एचवी पर टोलफेनामिक एसिड का सुरक्षा परीक्षण किया जा रहा है।
गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र कार्यक्रम देश के उन आठ अलग-अलग स्थानों पर लागू किया जा रहा है, जहां गिद्धों की आबादी थी। (किसी क्षेत्र को गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र तभी घोषित किया जाता है जब वहां लगातार दो साल तक किए गए सर्वेक्षणों में फार्मेसी और मवेशियों के शवों में कोई जहरीली दवाएं नहीं पाई जाती, तथा गिद्धों की आबादी स्थिर बनी रहती है और उसमें गिरावट नहीं आती।) हरियाणा में पिंजौर, पश्चिम बंगाल में राजाभातखावा, असम में माजुली द्वीप के आस-पास, बुंदेलखंड, मध्य प्रदेश में बक्सवाहा, उत्तर प्रदेश में दुधवा नेशनल पार्क और कतरनियाघाट वन्यजीव अभयारण्य, झारखंड में हजारीबाग, मध्य गुजरात और गुजरात के सौराष्ट्र को गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया गया है।
इस कार्य योजना के कार्यान्वयन की निगरानी के लिए एमओईएफसीसी द्वारा एक नेशनल वल्चर रिकवरी कमेटी (एनवीआरसी) का गठन किया गया, लेकिन चुनौतियां बनी रहीं। गिद्धों की आबादी अभी भी बहुत कम है और प्रतिकूल घटनाओं से वे तब तक असुरक्षित रहेंगे, जब तक उनकी संख्या में वास्तव में वृद्धि नहीं हो जाती। गिद्धों की कम प्राकृतिक प्रजनन क्षमता और अपरिपक्वता की लंबी अवधि के कारण भी वे लंबे समय तक अति-संवेदनशील बने रहते हैं; जंगली गिद्ध की आबादी को दोगुना होने में कम से कम 10 वर्ष का समय लगता है। पशु चिकित्सा संबंधी दवा के रूप में डिक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद मवेशियों के इलाज हेतु मानव-निर्मित मल्टी-डोज वायल्स (बहु-खुराक शीशियों) का दुरुपयोग गिद्धों की मृत्यु का कारण बना रहा। इसके अतिरिक्त, पशु चिकित्सकों द्वारा गिद्धों के उपचार हेतु अन्य हानिकारक एनएसएआईडी का निरंतर उपयोग किया जाता रहा। इस प्रकार, न केवल शुरू की गई कुछ कार्रवाइयों को जारी रखने के लिए, बल्कि पहले की संरक्षण योजना के कुछ उद्देश्यों के दायरे को विस्तार देने के लिए भी एक संशोधित संरक्षण योजना की आवश्यकता महसूस की गई। फलस्वरूप, न केवल गिद्धों की संख्या में गिरावट को रोकने के विचार से बल्कि भारत में गिद्धों की संख्या को सक्रिय रूप से बढ़ाने के लिए गिद्ध संरक्षण परियोजना को वर्ष 2025 तक बढ़ाने का निर्णय लिया गया।
राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण कार्य योजना 2020-25: भारत में गिद्ध संरक्षण कार्य योजना 2020-25 (एपीवीसी) को नवंबर 2020 में राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड (एनबीडब्ल्यूएल) द्वारा अनुमोदित और एमओईएफसीसी द्वारा जारी किया गया।
यह योजना पशु चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाले एनएसएआईडी की बिक्री केवल चिकित्सक के पर्चे पर सुनिश्चित कर उनके दुरुपयोग को रोकने की वकालत करती है, ताकि पशु चिकित्सा के लिए प्रतिबंधित दवाओं का उपयोग न किया जा सके। योजना दृढ़ता से इस बात की अनुशंसा करती है कि मवेशियों के इलाज में एनएसएआईडी के अति उपयोग का निषेध करने के उद्देश्य से पशु चिकित्सा उपचार केवल योग्य पशु चिकित्सकों द्वारा किया जाना चाहिए क्योंकि अधिकांश दवाओं की विषाक्तता, खुराक-आधारित होती है। यह योजना सिफारिश करती है कि गिद्धों को उन पशुओं के विषाक्त शवों के संपर्क में आने से बचाने के लिए मृत पशुओं का निपटान वैज्ञानिक तरीकों से किया जाना चाहिए। योजना में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि सभी हितधारकों को गिद्धों के संरक्षण के महत्व और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा किए गए उपायों के बारे में जागरूक करने के लिए निरंतर एवं प्रभावशाली जागरूकता कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए।
कार्य योजना 2020-25 के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
- गिद्धों के प्रमुख भोजन, पशुओं के शव, में एनएसएआईडी की विषाक्तता की रोकथाम हेतु पशु चिकित्सा में प्रयुक्त एनएसएआईडी की बिक्री के विनियमन, केवल चिकित्सक के पर्चे पर उनके वितरण और केवल योग्य पशु चिकित्सकों द्वारा पशु उपचार को सुनिश्चित करना;
- पशु चिकित्सा के लिए उपलब्ध एनएसएआईडी के व्यूहाणुओं (मॉलिक्यूल) का गिद्धों पर सुरक्षा परीक्षण करना, और गिद्धों पर किए गए परीक्षण में व्यूहाणुओं के सुरक्षित साबित होने के बाद ही इनका समावेशन करना;
- ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) द्वारा एक ऐसी प्रणाली स्थापित करना, जिससे एसीक्लोफेनाक और केटोप्रोफेन जैसी जहरीली दवाओं को स्वतः पशु चिकित्सा उपयोग से पृथक किया जा सके और इसे सुनिश्चित करने के लिए ऐसी दवाओं पर प्रतिबंध भी लगाना;
- देश के विभिन्न हिस्सों में पहले से कार्यरत आठ गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्रों के अलावा, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में अतिरिक्त संरक्षण प्रजनन केंद्र स्थापित करना;
- आरएचवी और ईवी प्रजाति के गिद्धों की आबादी के लिए एक संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम की शुरुआत करना, क्योंकि बीते कुछ वर्षों में इनकी आबादी में 80 प्रतिशत से अधिक गिरावट आई है, और अतिरिक्त बुनियादी ढांचे का निर्माण कर गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्रों में आरएचवी और ईवी के लिए संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम की शुरुआत करना;
- विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों, जैसे उत्तर भारत में पिंजौर, मध्य भारत में भोपाल, पूर्वोत्तर भारत में गुवाहाटी और दक्षिण भारत में हैदराबाद, में चार बचाव केंद्र स्थापित करना; जैसाकि वर्तमान में दुर्घटनाओं में घायल अथवा अनभिप्रेत विषाक्तता से बीमार पड़ने वाले गिद्धों के इलाज के लिए कोई गिद्ध बचाव केंद्र नहीं है;
- वन विभागों, बीएनएचएस, अनुसंधान संस्थानों, गैर-सरकारी संगठनों और आम नागरिकों के सहयोग से देश में गिद्ध आबादी की संख्या का बेहतर अनुमान प्राप्त करने के लिए समन्वित राष्ट्रव्यापी गिद्ध गणना (चार वर्षों में एक बार फरवरी में की जाने वाली) को पूरा करना;
- गिद्धों की शेष आबादी के संरक्षण हेतु स्थापित प्रोटोकॉल का अनुसरण करते हुए लक्षित रक्षा और जागरूकता (टार्गेटेड एड्वोकेसी और अवेयरनेस) कार्यक्रमों के माध्यम से प्रत्येक राज्य में कम से कम एक गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र की स्थापना करना, जहां गिद्धों की बस्ती से 100 किमी. के दायरे में विषाक्त एनएसएआईडी के प्रचलन को कम करना सुनिश्चित किया गया हो; और
- गिद्ध संरक्षण के लिए अन्य उभरते खतरों, जैसे बिजली के बुनियादी ढांचे के तीव्र विकास तथा बिजली की लाइनों के प्रसार के कारण होने वाले टकरावों और विद्युत-आघात, तथा शवों की अनभिप्रेत विषाक्तता, जो मानव-पशु संघर्षों में वृद्धि के साथ-साथ गिद्ध संरक्षण के लिए एक गंभीर समस्या बन सकती है, की जानकारी इकट्ठा करना।
कार्य योजना 2020-25 का कार्यान्वयनः एपीवीसी 2020-25 को विभिन्न केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के माध्यम से लागू किया जाएगा। इस योजना में एमओईएफसीसी, एनवीआरसी, राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण समिति, सीजेडए, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, मत्स्यपालन, पशुपालन, और डेयरी मंत्रालय, तथा राज्य समितियां आदि शामिल होंगी।
राज्य समितियां, राज्य में कार्य योजना का कार्यान्वयन सुनिश्चित करेंगी। ये राज्य समितियां, चिह्नित राज्यों में गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र स्थापित करने की सुविधा प्रदान करने; राष्ट्रव्यापी गिद्ध गणना के लिए एक राज्य समन्वयक की नियुक्ति करने; गिद्धों के निवास स्थानों की पहचान करने; जनगणना और क्षमता विकसित करने के लिए दल बनाने; गिद्ध संरक्षण से जुड़े वैज्ञानिक संस्थानों या गैर-सरकारी संगठनों के साथ चार वर्ष में एक बार मवेशियों के शवों के यकृत के नमूने एकत्र करने; बचाए गए एवं मृत गिद्धों को बचाव केंद्रों में भेजने की व्यवस्था (बचाए गए गिद्धों के मामले में, केंद्रों में उनके इलाज की सुविधा दी जाती है और मारे गए या मृत गिद्धों के मामले में उन्हें पोस्टमार्टम की सुविधा के लिए केंद्रों में भेजा जाता है, ताकि उनकी मृत्यु के कारण का पता लगाया जा सके), करने और राज्य में गिद्ध संरक्षण पर एक वार्षिक रिपोर्ट तैयार करने का काम करेंगी।
एडीजी (वन्यजीव) की अध्यक्षता में एनवीआरसी, एपीवीसी 2020-25 के कार्यान्वयन की निगरानी करेगी। एपीवीसी मौजूदा क्षेत्रीय संचालन समिति और सेविंग एशियाज वल्चर्स फ्रॉम एक्स्टिंक्शन (सेव) से भी सलाह लेगी। रैप्टर समझौता ज्ञापन के मल्टी-स्पीशीज एक्शन प्लान (एमएसएपी) और कन्वेंशन ऑफ माइग्रेटरी स्पीशीज (सीएमएस) से भी सहयोग लिया जाएगा।
एपीवीसी के प्रमुख उद्देश्यों या कार्य बिंदुओं के कार्यान्वयन के समीक्षात्मक मूल्यांकन के बाद वर्ष 2025 के पश्चात इसे अन्य पांच वर्षों के लिए बढ़ाया जाएगा। आईजी (वन्यजीव) की अध्यक्षता में एनवीआरसी से नियुक्त की गई तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति द्वारा वर्ष 2022-23 के दौरान एपीवीसी की विस्तृत मध्यावधि समीक्षा की जाएगी।
योजना के अपेक्षित परिणामः एमओईएफसीसी के सचिव (वन्यजीव) की अध्यक्षता में राष्ट्रीय समिति द्वारा वर्ष 2025 में, एनवीआरसी की बैठक में, निम्नलिखित बिंदुओं का अद्यतन करना अपेक्षित हैः
- एनएसएआईडी के सभी मौजूदा व्यूहाणुओं का सुरक्षा परीक्षण किया गया हो, और पशु चिकित्सा में गिद्धों के लिए विषाक्त पाई गई दवाओं के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जा चुका हो;
- एनएसएआईडी को औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940 की अनुसूची-X में रखा गया हो और केवल पशु चिकित्सकों द्वारा लिखे गए पर्चे पर ही उपलब्ध हों, तथा उस पर्चे की एक प्रति दवा विक्रेता द्वारा अपने पास रखी गई हो;
- पशुओं के लिए दवाओं की निर्धारित खुराक की व्यवस्था सहित उनका इलाज बेहतरीन अनुशीलन के साथ केवल योग्य पशु चिकित्सकों द्वारा ही किया जाता हो;
- एक मजबूत नियामक तंत्र मौजूद होना चाहिए, जिसके द्वारा गिद्धों के लिए विषाक्त सभी एनएसएआईडी को पशु चिकित्सा में उपयोग के लिए प्रतिबंधित किया जाना चाहिए;
- घरेलू शवों का निपटान कुशलता से (वैज्ञानिक तरीके से) प्रबंधित किया जाता हो और गिद्ध, शवों के संपर्क में न आते हों;
- जंगली अनग्यूलेट्स (खुरदार स्तनधारी) के शवों को संरक्षित क्षेत्रों में खुले में छोड़ दिया जाता हो और अपमार्जकों (सफाई कर्मियों) के लिए आरक्षित वन बनाए गए हों;
- सभी राज्यों में प्रस्तावित गिद्ध सुरक्षित क्षेत्रों के लिए स्थानों की पहचान की जा चुकी हो और कम से कम दो राज्यों में गिद्धों की सभी प्रजातियों को संरक्षित किया गया हो, सभी प्रस्तावित गिद्ध सुरक्षित क्षेत्रों में गिद्धों की आबादी की निगरानी की जाती हो, तथा सर्वेक्षण और पशु शव नमूनों द्वारा पशु चिकित्सा संबंधी विभिन्न दवाओं का प्रचलन भी फार्मेसी सर्वेक्षण और मवेशियों के शवों के नमूनों द्वारा किया जाता हो;
- कार्य योजना में प्रस्तावित अतिरिक्त गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र और मौजूदा केंद्र पूरी तरह से कार्यात्मक हों तथा सीजेडए द्वारा विकसित मानक प्रोटोकॉलों का पालन करते हों;
- गिद्ध प्रजनन कार्यक्रम चल रहा हो और प्रजनन केंद्रों से निर्मुक्त गिद्धों की सैटेलाइट ट्रैकिंग द्वारा निगरानी की जा रही हो, तथा दवा से होने वाली किसी मृत्यु की कोई सूचना न हो;
- देश में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर गिद्धों की सभी नौ प्रजातियों के लिए जनसंख्या प्रवृत्तियों पर आधारभूत जानकारी इकट्ठी की गई हो; और गिद्धों की समन्वित राष्ट्रव्यापी गणना हर चार वर्ष में की जाती हो;
- किसी भी प्रजाति की आबादी में गिरावट नहीं हो रही हो।
संस्थागत ढांचा और कार्यान्वयन रणनीतिः हालांकि कार्य योजना 2020-25 का कार्यान्वयन एमओईएफसीसी पर निर्भर करता है, लेकिन दवाओं के लाइसेंस तथा वितरण की जिम्मेदारी स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के डीसीजीआई की है, जबकि वितरण और प्रबंधन के निपटान की जिम्मेदारी पशुपालन मंत्रालय के पशुपालन आयुक्त की है। विद्युत मंत्रालय, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय को इस कार्य योजना में कुछ हद तक ही शामिल करने की आवश्यकता है।
अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय कार्य योजनाएं: मल्टी-स्पीशीज एक्शन प्लान, अफ्रीकी-यूरेशियन गिद्धों (गिद्ध एमएसएपी) को संरक्षित करने के लिए बनाई गई एक अंतरराष्ट्रीय कार्य योजना है, जो भारत में गिद्ध संरक्षण के अनुरूप है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के तहत प्रवासी प्रजातियों का संरक्षण (सीएमएस) या ‘बॉन कन्वेंशन’ का उद्देश्य प्रवासी प्रजातियों को उनके क्रम में संरक्षित करना है। भारत, नवंबर 1983 से सीएमएस का समर्थक (पक्षकार देश) है। एमएसएपी को सीएमएस रैप्टर्स एमओयू द्वारा विकसित किया गया था और इसे अक्टूबर 2017 में मनीला, फिलीपींस में आयोजित कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज 12 (सीओपी12) के सम्मेलन में अपनाया गया था। इस कार्य योजना में भारत में दर्ज गिद्धों की सभी नौ प्रजातियों को शामिल किया गया है। भारत ने वर्ष 2015 में 54वें हस्ताक्षरकर्ता के रूप में इस समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे।
‘सेव’ कार्यक्रम गिद्ध संरक्षण में विशेषज्ञता रखने वाले संगठनों का एक संघ है, तथा औपचारिक रूप से इसकी स्थापना फरवरी 2011 में की गई थी। इसका साझा लक्ष्य, एशिया के गंभीर रूप से लुप्तप्राय गिद्धों के संरक्षण के लिए अपेक्षित कार्यों को प्राथमिकता देना और उन्हें लागू करने में सहायता करना है।
भारत में गिद्ध संरक्षण के लिए बनाई गई कार्य योजना की प्रासंगिकता, नेपाल में 2015-19 के लिए बनाई गई गिद्ध संरक्षण कार्य योजना में निहित है। इसे नेपाल के राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव संरक्षण तथा पक्षी संरक्षण विभाग द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया था, जो पर्यावरण से डिक्लोफेनाक के निस्तारण पर जोर देता है।
दक्षिण एशिया की अति संकटापन्न गिद्ध प्रजातियों के संरक्षण पर क्षेत्रीय घोषणा पत्र को, इस क्षेत्र में गिद्धों की अति संकटापन्न प्रजातियों के संरक्षण के लिए एक क्षेत्रीय प्रतिक्रिया विकसित करने हेतु आयोजित संगोष्ठी में अपनाया गया था। यह संगोष्ठी मई 2012 में दिल्ली में आयोजित की गई थी, जिसमें दक्षिण एशिया क्षेत्र में गिद्धों की गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने के लिए संयुक्त रूप से कार्य करने का निर्णय लिया गया। क्षेत्रीय संचालन समिति (आरएससी) के विधान का गठन इसके महत्वपूर्ण फैसलों में से एक था। आरएससी का गठन सितंबर 2012 में सदस्य देशों को दो वर्ष के लिए चक्रीय आधार पर इसकी अध्यक्षता देने के प्रावधान के साथ किया गया था। इसकी पहली अध्यक्षता भारत को मिली थी। इस समिति में बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान, तथा प्रत्येक देश के किसी अग्रणी गैर-सरकारी संगठन से एक-एक प्रतिनिधि, आईयूसीएन (सह-अध्यक्ष), एक आईएनजीओ (बर्डलाइफ द्वारा नामित), भारतीय केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण, भारतीय वन्यजीव संस्थान, वैश्विक पर्यावरण सुविधा प्रस्तावों के विकास को सुविधाजनक बनाने वाली संयुक्त राष्ट्र एजेंसी और एसएससी गिद्ध विशेषज्ञ समूह के अध्यक्ष शामिल हैं।
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