केंद्र सरकार ने 23 मार्च, 2022 को ओडिशा सरकार से उसके द्वारा पारित लिंगराज मंदिर से संबंधित अध्यादेश के कुछ प्रावधानों पर स्पष्टीकरण मांगा, जैसाकि केंद्र के अनुसार लिंगराज मंदिर और उससे जुड़े मंदिरों को एक विशेष कानून के तहत लाने हेतु ओडिशा सरकार का अध्यादेश राज्य विधायिका की ‘विधायी शक्ति’ से बाहर है, और यह प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के प्रतिकूल हो सकता है।

दरअसल, दिसंबर 2020 में राज्य सरकार ने लिंगराज मंदिर और उससे जुड़े आठ देवालयों के जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण के लिए उन्हें लिंगराज मंदिर प्रबंधन समिति के नियंत्रण में लाने हेतु एक अध्यादेश को मंजूरी दी थी। अध्यादेश में पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी को लिंगराज मंदिर का मुख्य प्रशासक नियुक्त किये जाने के साथ 15 सदस्यीय समिति गठित करने का प्रस्ताव किया गया था, परंतु लिंगराज मंदिर परिसर के जिन मंदिरों और जलाशयों को अध्यादेश के दायरे में लाने का प्रावधान किया गया है वे केंद्र सरकार तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन हैं। वर्तमान में, लिंगराज मंदिर का संचालन ओडिशा हिंदू रिलिजियस एंडोमेंट एक्ट, 1951 के तहत होता है।

लिंगराज मंदिर और उसकी स्थापत्य कला

लिंगराज का शाब्दिक अर्थ है लिंगम् (एक संस्कृत शब्द, जिसे हम शिवलिंग के रूप में जानते हैं) का राजा। ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित लिंगराज मंदिर ओडिशा का सबसे प्राचीन और बड़ा मंदिर है। 10वीं -11वीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर को अपनी स्थापत्य कला के कारण कलिंग वास्तुकला और पूर्वी भारत के श्रेष्ठतम पुरातात्विक स्मारकों में से एक माना जाता है। हालांकि, कई विद्वानों द्वारा माना जाता है कि मंदिर के कुछ भाग छठी शताब्दी में मौजूद थे, यहां तक कि सातवीं शताब्दी के कुछ प्रमुख ग्रंथों में भी इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति केशरी द्वारा शुरू करवाया गया था। प्रसिद्ध आलोचक और इतिहासकार जेम्स फर्ग्यूसन (1808 -1886) द्वारा लिंगराज मंदिर को “वन ऑफ द फाइनेस्ट एक्जांपल्स ऑफ प्योरली हिंदू टेंपल इन इंडिया” (भारत में, पूर्ण रूप से हिंदू मंदिर के बेहतरीन उदाहरणों में से एक) के रूप में वर्णित किया गया है।

लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित इस संरचना का विशाल परिसर 150 वर्ग मी. में फैला है और लेटेराइट की 520×465 फीट की एक प्राकार (मंदिर के चारों ओर बनी ऊंची प्राचीर) से घिरा है। मंदिर परिसर में प्रवेश करने हेतु इसका एकमात्र प्रवेशद्वार, जिसे ‘सिंह द्वार’ कहा जाता है, पूर्व दिशा में स्थित है। इस द्वार के दोनों ओर दो उग्र शेरों के पैरों के नीचे हाथियों को देखा जा सकता है। इस परिसर में मुख्य मंदिर के अलावा लगभग 50 अन्य छोटे-छोटे मंदिर हैं, जिनमें पश्चिम दिशा में देवी पार्वती को समर्पित भगवती मंदिर भी शामिल है।

इस मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्तियां भी हैं, जिनकी स्थापना 12वीं शताब्दी में पुरी जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करने वाले गंग वंश के शासकों द्वारा की गई थी।

यह भव्य मंदिर देउला या देउल शैली में बना है, जो मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित हैः 1. विमान (गर्भगृह युक्त संरचना); 2. जगमोहन (सभामंडप); 3. नटमंदिर या नाट्यशाला (नृत्य और संगीत हॉल); और 4. भोग-मंडप (जहां भगवान को समर्पित करने के लिए भोग बनाया और प्रसाद के रूप में भक्तों को वितरित किया जाता है)।

मंदिर का विमान लगभग 180 फीट ऊंचा है, जो परंपरागत कलिंग स्थापत्य शैली के अनुरूप बिल्कुल सीधा खड़ा है और मस्तक (शीर्ष) से भीतर की ओर मुड़ा हुआ है। इस ऊंचे विमान की भू-योजना वर्गाकार है, जो भीतर से 22 वर्ग फीट और बाहर से 52 वर्ग फीट बड़ी है। लिंगराज मंदिर के विमान के भीतर बने वर्गाकार पूर्वाभिमुख गर्भगृह में ग्रेनाइट का एक शिवलिंग स्थापित है, जिसका व्यास और ऊंचाई आठ फीट है। इस शिवलिंग के कारण इस मंदिर को ‘स्वयंभू’ मंदिर के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इसमें विराजमान लिंग की स्थापना किसी के द्वारा नहीं की गई, बल्कि यह स्वतः उत्पन्न हुआ था। आमतौर पर इसे त्रिभुवनेश्वर (जिसे भुवनेश्वर भी कहा जाता है) के रूप में जाना जाता है। गर्भगृह का द्वार पूर्व दिशा में स्थित है। मंदिर के देउल (विमान एवं गर्भगृह) का निर्माण पंचरथ शैली में किसी आधार या पीठ के बिना किया गया है। इसके बरामदे को जटिल नक्काशीदार सांचों से और दीवारों को भव्य आलंकारिक नक्काशी से सजाया गया है।

भीतर से 35×30 फीट और बाहर से 55×50 फीट बड़े जगमोहन की कई स्तरों पर बनाई गई पिरामिडनुमा छत लगभग 90 फीट ऊंची है, जिसे घुड़सवार और पैदल सेना, हाथियों एवं अन्य दृश्यों की नक्काशी से सजाया गया है। इसमें क्रमशः उत्तर एवं दक्षिण दिशा में दो प्रवेशद्वार हैं, जिनमें से दक्षिणी द्वार पर भगवान शिव के विवाह के दृश्य को उत्कीर्ण किया गया है। इसके अलावा भी जगमोहन को नक्काशी के कई सुंदर नमूनों (या प्रतिरूपों) से सुसज्जित किया गया है।

विमान और जगमोहन के विपरीत, नटमंदिर और भोग-मडंप दो खुले (दीवार रहित) भवन हैं, जिनका निर्माण 11वीं शताब्दी के अंत में सोमवंशी राजा ललाटेंदु केशरी द्वारा करवाया गया था। एक पीठ (आधार) और ठोस स्तंभों पर अवस्थित नटमंदिर भीतर से 38 वर्ग फीट और बाहर से 50 वर्ग फीट बड़ा है, जिसमें मुख्य प्रवेशद्वार के अलावा दो पार्श्वद्वार भी हैं। यह पूर्व दिशा में जगमोहन से जुड़ता है। इस कक्ष की दीवारें विभिन्न मुद्राओं में स्त्री-पुरुषों की लालित्यपूर्ण और आलंकारिक मूर्तियों से सुशोभित हैं।

भोगमडंप, भीतर से 42 वर्ग फीट और बाहर से 56.5 वर्ग फीट बड़ा है। इस कक्ष के चारों ओर चार द्वार हैं और इसकी बाहरी दीवारों पर मनुष्यों तथा पशुओं की नक्काशीदार मूर्तियां बनी हुई हैं। इसकी पिरामिडनुमा छत को कई क्षैतिज स्तरों पर बनाया गया है, जो एक मध्यवर्ती वेदिका (या मंच) से मिलती है। इसके सबसे ऊपर एक अधोमुख (या नीचे की और लटकी हुई) घंटी और एक कलश बना हुआ है।

इस स्वयंभू शिवलिंग की पूजा मूल रूप से कीर्तिवास के रूप में की जाती थी, परंतु वर्तमान में हरिहर (विष्णु और शिव) के रूप में की जाती है, जैसाकि मंदिर के विमान के मस्तक क्षेत्र के कलश में त्रिशूल और चक्र की आकृतियां बनी हुई हैं, जो क्रमशः शिव और विष्णु के प्रतीक हैं। इसके अलावा, मंदिर के परिसर में द्विभंगी मुद्रा में हरिहर की एक महत्वपूर्ण छवि है, जिसके आधार, और मंदिर के सामने बने वाहनस्तंभ के शीर्ष पर नंदी और गरुड़ की आकृतियां बनी हुई हैं, जिनके कारण इस मंदिर को शैव और वैष्णव संप्रदायों के समन्वय का प्रतीक माना जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि जिस समय इस मंदिर का निर्माण हो रहा था, उस समय जगन्नाथ संप्रदाय का प्रभाव बढ़ रहा था, जिसके कारण इस मंदिर पर भी इसका प्रभाव पड़ा।

मंदिर के उत्तर में बिंदुसागर झील स्थित है, जो 1300 फीट लंबी और 700 फीट चौड़ी है।

लिंगराज मंदिर को इसकी विस्तृत योजना, अनुपात, निर्बाध जोड़, सुरुचिपूर्ण शिल्प कौशल और प्रभावशाली आयामों के लिए भारतीय वास्तुकला की उत्कृष्ट संरचना माना जाता है। एक आस्था और भक्ति का स्थल होने के अलावा, प्राचीन समय में यह मंदिर कला और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र भी था, जो कुछ हद तक एक आधुनिक सामुदायिक केंद्र जैसा है, जहां सामाजिक और सांस्कृतिक सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है।


कलिंग शैली

भारत में मंदिर स्थापत्य या वास्तुकला की मुख्यतः तीन शैलियां प्रचलित हैं: (क) नागर; (ख) द्रविड़; और (ग) बेसर। हालांकि, ओडिशा के मंदिरों की वास्तुकला अपनी उत्कृष्ट विशेषताओं के कारण पूरी तरह से एक विशेष श्रेणी के तहत आती है, जिसे ‘कलिंग शैली’ कहा जाता है। इस शैली में मूल रूप से मंदिर दो भागों में बना होता है, पहली लाट (टॉवर) और दूसरी विमान या शिखर और दूसरी लाट गर्भगृह कहलाती है। सभामंडप को जगमोहन कहा जाता है, जो सामान्यतया गर्भगृह से पहले होता है। इसके साथ ही देउल और जगमोहन की बाहरी दीवारों पर भव्य आकृतियों व वास्तुशिल्प का रूपांकन किया जाता है।

वास्तुकला की कलिंग शैली में देउला एक विशेष घटक है। कभी-कभी संपूर्ण मंदिर को देउला कहा जाता है। ओडिया भाषा में ‘देउला’ शब्द का अर्थ है एक विशेष शैली के साथ निर्मित एक भवन संरचना, जो ओडिशा के अधिकांश मंदिरों में देखने को मिलती है। देउला तीन प्रकार के होते हैं:

1.रेखापीड (रेखा देउल)—गर्भगृह और इसके ऊपर का लंबा और सीधा भवन, जो शिखर की तरह होता है;

2.पिधा देउला—एक वर्गाकार मंडप जहां श्रद्धालु ईश्वर की आराधना करते हैं। (रेखा देउल और पिधा देउला शैली का प्रयोग भगवान विष्णु, सूर्य और शिव मंदिरों के निर्माण में किया जाता है।); और

3.खाखरा देउला—गर्भगृह के ऊपर पिरामिड के आकार की आयताकार छत (खाखरा देउला शैली का प्रयोग चामुंडा और देवी दुर्गा के मंदिरों के निर्माण में किया जाता है)।


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