सर्वाेच्च न्यायालय ने 11 अगस्त, 2020 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए यह माना कि बेटों की तरह ही बेटियों का भी संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति पर बराबर का अधिकार है। न्यायालय ने फैसला दिया कि वर्ष 1956 में कानून के संहिताकरण के बाद से ही पिता, दादा तथा परदादा की संपत्तियों पर बेटों की तरह बेटियों का भी समान अधिकार होगा। बेटी को इस आधार पर उत्तराधिकार देने से इनकार नहीं किया जा सकता कि कानून लागू होने से पूर्व उसके पिता की मृत्यु हो गई थी।

तीन न्यायाधीशों की पीठ का नेतृत्व कर रहे न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने इस फैसले पर कहा, ‘‘बेटी हमेशा प्यारी बेटी बन कर रहती है। बेटा तब तक बेटा रहता है जब तक उसकी शादी नहीं हो जाती। एक बेटी आजीवन बेटी ही है। बेटी आजीवन सहभागी रहेगी, चाहे उसके पिता जीवित हो या नहीं।’’

सर्वाेच्च न्यायालय ने माना कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, जो बेटियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्रदान करता है, वह पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होगा। न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, एस. अब्दुल नजीर तथा एम.आर. शाह की पीठ ने, 121 पन्नों के अपने फैसले में 9 सितंबर, 2005 से लागू होने वाले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की संशोधित धारा 6 के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के परस्पर विरोधी फैसलों से उत्पन्न होने वाले भ्रमों को स्पष्ट किया।

वर्ष 2015 के एक पूर्व फैसले को खारिज करते हुए, पीठ ने कहा कि चाहे पिता जीवित हो या न हो, 9 सितंबर, 2009 से पूर्व जन्मी बेटियां भी समान उत्तराधिकार का दावा कर सकती हैं। हालांकि, बेटियां, सहभागी अधिकारों का दावा करते हुए, 20 दिसंबर, 2004 से पूर्व के मौजूदा सहाभागियों द्वारा पैतृक संपत्तियों के निस्तारण या हस्तांतरण पर सवाल नहीं उठा सकेंगी, जैसाकि संशोधित धारा 6 में भी उल्लेख किया गया है।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि संपत्ति के मौखिक रूप से अपंजीकृत बंटवारे, बिना किसी समकालीन सार्वजनिक दस्तावेज के बंटवारे को वैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त बंटवारे के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। साथ ही सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा कि विभिन्न अदालतों में इस सवाल पर लंबित विवादों पर अगले छह महीनों के भीतर फैसला सुनाया जाना चाहिए।

इस फैसले से लैंगिक न्याय को काफी बढ़ावा मिला है, जैसाकि संवैधानिक रूप से परिकल्पित है। 2005 में संशोधित अधिनियम द्वारा धारा 6 के प्रावधान को प्रतिस्थापित करके पक्षपात खत्म किया जा सकता है।

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