वर्तमान में औषध (फार्मास्युटिकल) उद्योग प्रमुख उद्योगों में से एक है। वैश्विक रूप से प्रत्येक वर्ष 1,00,000 टन से अधिक औषधीय उत्पादों का उपभोग किया जाता है जिसका 24 प्रतिशत उपभोग अकेले यूरोप में होता है। फार्मा बाजार में लगातार वृद्धि से न केवल उत्पादन द्वारा बल्कि उपभोक्ता जनित अपशिष्ट और इन अपशिष्टों के निपटान के तरीकों से भी पर्यावरणीय चिंताओं में वृद्धि हुई है। औषधियों के विनिर्माण, प्रयोग एवं निस्तारण के दौरान सक्रिय औषधीय सामग्री (एपीआई) तथा अन्य रासायनिक सामग्रियां पर्यावरण में छोड़ दी जाती हैं। संपूर्ण विश्व में सतही जल (झीलों एवं नदियों), भौमजल, मृदा, खाद तथा पेयजल में औषधियों के घटक पाए गए हैं।
वैश्विक समीक्षाएं उद्घाटित करती हैं कि 600 से अधिक एपीआई पर्यावरण में पाए गए हैं। अधिकतर एपीआई निरंतर बने रहते हैं और पर्यावरण में जमा होते रहते हैं, जिसका प्रतिकूल प्रभाव वन्यजीवों तथा मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। पर्यावरण में मौजूद एंटीबायोटिक्स से रोगाणुरोधी प्रतिरोध विकसित होता है, जो आज मानव स्वास्थ्य के सम्मुख एक बड़ी चुनौती है। इसके बावजूद, औषधीय एपीआई की निर्बाध विमुक्ति जारी है।
औषधि जनित प्रदूषण की उत्पत्ति मानवीय गतिविधियों द्वारा हुई है। निर्माण कार्यों, पशु चिकित्सा, कृषि व्यापार, अस्पतालों, और सामुदायिक उपयोगों के दौरान बचे अपशिष्ट, औषधि जनित प्रदूषण के कारक हैं। यूएस जियोलॉजिकल सोसायटी के अनुसार, अधिकतर जलधाराओं में चिकित्सकों द्वारा निर्धारित औषधियों की अपेक्षा गैर-निर्धारित औषधियों और स्टेरॉयड दवाओं की मात्रा अधिक पाई गई, यद्यपि इनमें चिकित्सकों द्वारा निर्धारित की गई विभिन्न प्रकार की औषधियां भी शामिल थीं।
अनुचित रूप से निपटाई गई औषधियों को विषाक्त अपशिष्ट माना जाता है, तथा ये जलधाराओं और पेयजल में पाई जाती हैं, जो मनुष्यों, वन्यजीवों और कृषि को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं। इस समय, पर्यावरण में उपस्थित औषधि जनित प्रदूषकों के संपर्क में आने से पारिस्थितिक अभिग्राहकों और मनुष्यों पर कई अज्ञात प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना बनी हुई है। हालांकि, पर्यावरण में इन प्रदूषकों की अरक्षितता के कारण जलीय जीवों पर पड़ने वाले संभावित खतरों की पहचान एक प्राथमिक चिंता के रूप में की गई है।
ऐसी औषधियां जिन्हें धीमी गति से जैवअपघटनीय बनाया जाता है या वे गैर-जैवअपघटनीय होती हैं, वे मानव या जन्तु के शरीर से गुजरने के दौरान रासायनिक रूप से पूर्णतया नष्ट नहीं होती, और पर्यावरण में प्रवेश कर मानव स्वास्थ्य तथा पारितंत्र के लिए खतरा उत्पन्न करती हैं, एनवायरनमेंटली पर्सिसटेंट फार्मास्युटिकल पाल्यूटेंट (ईपीपीपी) कहलाती हैं।
औषध विक्रेताओं से यह अपेक्षित है कि वे औषधियों को हटाते समय उनके निपटान हेतु बनाए गए नियमों का पालन करें। हालांकि, कई अस्पताल औषधियों का निपटान ठीक प्रकार से कर रहे हैं, सिवाय कीमोथैरेपी में प्रयुक्त पदार्थों के, जिन्हें आसानी से नालियों या अपशिष्ट भरावक्षेत्रों (लैंडफिल) में फेंक दिया जाता है। घरेलू औषधियों को नष्ट करने के लिए सुविधाजनक तरीका उन्हें जलाकर भस्म करना है। यदि घरेलू अपशिष्ट किसी भट्टी में डाले जाएं, तो औषधियों का निपटान सुरक्षित रूप से किया जा सकता है। परंतु यदि घरेलू अपशिष्ट किसी लैंडफिल में फेंके जाते हैं, तो यह निस्तारण का उतना अच्छा तरीका नहीं है, जितना कि उन्हें निर्दिष्ट व्यवस्थित स्थलों पर पहुंचाना, परंतु फिर भी लोग उन्हें पानी में बहाना बेहतर समझते हैं।
प्रतिदिन औषधियां लेने के पश्चात, सक्रिय सामग्रियों का एक बड़ा प्रतिशत (एक मौखिक खुराक में सक्रिय सामग्री के 30 प्रतिशत से 90 प्रतिशत के बीच) चयापचय नहीं करता और अंततः मानव अपशिष्ट के रूप में समाप्त होता है। रक्त प्रवाह में अतिरिक्त औषधियां, मूत्र और मल पदार्थ के माध्यम से शरीर से बाहर निकलती हैं, तथा उत्सर्जित रसायन हमारे घरों से नालियों द्वारा बाहर निकलकर जलधाराओं और झीलों तक पहुंच जाते हैं। कई औषधियों के चयापचय उत्सर्जित होने के बाद भी पर्यावरण में सक्रिय बने रह सकते हैं। यह प्रदूषण औषधियों के उपयोग के फलस्वरूप होता है।
यूरोपीय आयोग ने जल नियमों की नई श्रेणी जारी की, जिसके तहत पहली बार कुछ औषध उत्पादों को शामिल किया गया। विशेष रूप से दर्द निवारक औषधि डिक्लोफेनाक जैसी औषधियों को निगरानी सूची में रखा गया।
कतिपय औषधि निर्माण सुविधाओं द्वारा निकटवर्ती जलमार्गों में सक्रिय औषधि सामग्रियों को फेंकते हुए देखा गया है, जिससे औषधि जनित प्रदूषण के स्थानीयकृत केंद्र बनते हैं। 2009 में, स्वीडन की यूनिवर्सिटी ऑफ गोथेनबर्ग के पर्यावरण औषध विज्ञानी जोएकिम लार्सन ने भारत में हैदराबाद के निकट कई औषधि विनिर्माण सुविधाओं को जल में प्रतिजैविक औषधियों को प्रवाहित करते हुए देखा, जल के बहाव में औषधियों की उच्च सांद्रता पाई गई और कुछ मामलों में इसका स्तर, चिकित्सकीय रूप से दी गई खुराकों के बराबर था। दो वर्ष पश्चात, लार्सन ने उस स्थान के बैक्टीरिया में ज्ञात प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीन का उच्च स्तर पाया।
जल निकायों में औषधियों की उपस्थिति के प्रतिकूल प्रभाव देखे गए, जिसे नोट किया गया। उदाहरणार्थ, मधुमेह की औषधि मेटफॉरमिन का नर मछलियों पर स्त्रैण प्रभाव हो सकता है, और उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो सकती है।
नेचर जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, यूरोप की कई नदियां, नर मछलियों का आवास है, जो औषधि जनित प्रदूषण के कारण ‘मध्यलिंगी’ (इंटरसेक्स) हो गए और मादा प्रजनन शरीर रचना सहित मादा यौन लक्षण प्रदर्शित करने लगे। विषविज्ञानी इस स्त्रीलिंगीकरण के लिए अंतःस्रावी व्यवधान रसायनों—विशेष रूप से गर्भनिरोधक गोली, एथिनिल ऑस्ट्रैडियोल (ईई2)—को जिम्मेदार मानते हैं। औषधीय उद्योगों से पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का यह एक विशेष उदाहरण है।
हालांकि, अधिकतर मामलों में, पर्यावरण में पाई जाने वाली औषधियों की सांद्रता उपचारात्मक खुराक की अपेक्षा काफी कम है और इन निम्न सांद्रताओं के कारण, यह निर्धारित करना कठिन हो सकता है कि क्या, किन्हीं औषधियों का प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है। अधिकांशतः प्रभावित जीव, चर्चा के केंद्र नहीं होते; उदाहरण के लिए शैवाल या सी लाइस, या उनके प्रभाव इतने कम होते हैं कि यदि अन्वेषक विशेष रूप में उन्हें न देखें, तो वे अलक्षित ही रह जाते हैं। इसमें सामान्यतया तब तक निगरानी का अभाव होता है, जब तक किसी बड़े पशु की आबादी नष्ट नहीं हो जाती। 1996 और 2007 के बीच ऐसी ही एक आबादी नष्ट हो गई, जब भारत में सूजनरोधी औषधि डिक्लोफेनाक की अरक्षितता से असंख्य गिद्ध मारे गए और पक्षी की यह प्रजाति विलुप्त होने के करीब पहुंच गई। जीनस जिप्स गिद्धों की प्रजाति विशेष रूप से डिक्लोफेनाक के प्रति संवेदनशील होती है, और लगभग 10 मिलियन से 40 मिलियन पक्षी उदर के गठिया और घातक रूप से किडनी के खराब हो जाने के कारण मारे जाते हैं। वर्तमान में जिप्स गिद्धों की तीन प्रजातियां एशिया में गंभीर रूप से लुप्तप्राय हैं। अफ्रीका और यूरोप में भी जिप्स गिद्धों में इसी प्रकार के विषाक्त प्रभाव देखे गए हैं, हालांकि इन क्षेत्रों में गिद्धों की आबादी में कमी नहीं हुई है।
परंतु फार्मास्युटिकल अरक्षितता और नुकसानदायक पारिस्थितिकीय प्रभाव के बीच गिद्धों की संख्या घटने या कम होने के ऐसे नाटकीय और स्पष्ट संबंध दुर्लभ हैं। वास्तव में, डिक्लोफेनाक और गिद्धों पर दुष्प्रभाव एकमात्र ऐसा मामला है, जिसमें जंगल में पड़े पर्यावरणीय प्रभाव के लिए केवल एक औषधि को कारण माना गया है।
वातावरण में औषधियों के अन्य पर्यावरणीय विषविज्ञानी प्रभाव पाए गए हैं—उदाहरण के लिए, पशुचिकित्सा संबंधी प्रति-परजीवी औषधि आइवरमेक्टिन, गोबर में कीटों की संख्या और विविधता को कम करती है, जो गोबर के निम्नीकरण में देरी और पक्षियों तथा चमगादड़ों को उपलब्ध खाद्य की मात्रा को संभवतः कम कर सकती है। परंतु परिणाम सामान्यतया मंद होते हैं तथा कारण-और-प्रभाव संबंध कम स्पष्ट होता है।
प्रयोगशाला में किए गए अध्ययनों में यह पाया गया कि प्रति-अवसादक, क्लैम (बड़ी सीपी) में वंश-वृद्धि व्यवहार को बदल सकते हैं; घोंघे की गतिविधि को बाधित कर सकते हैं, कर्क मछली (क्रेफिश) में उग्र व्यवहार का कारण बन सकते हैं तथा कैटलफिश में सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं और सूजनरोधी औषधि आईबुप्रोफेन मछलियों में प्रजनन को प्रभावित कर सकती है, जैसे कि अंडे देने में देरी होना।
औषधि जनित प्रदूषण का मुद्दा इस तथ्य से और भी अधिक जटिल हो गया है कि जल में बिस्फेनॉल ए (Bisphenol A) सहित कई अन्य हॉर्मोन वाले रसायन पाए जा सकते हैं, जो जल में अंतःस्रावी विघटनकारी गुणों को दर्शाते हैं और जलीय जीवों पर हानिकारक प्रभाव छोड़ते हैं। जैसाकि पहले उल्लिखित किया जा चुका है कि औषधि जनित प्रदूषण के कारण नर मछलियों पर स्त्रिायोचित प्रभाव पड़ते हैं।
समस्या से किस प्रकार निपटा जाएः वैज्ञानिक इन औषधियों के पारिस्थितिकी तंत्र पर सामान्य रूप से पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर रहे हैं, और समस्या की रोकथाम के तरीके ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, अवांछित औषधियों का उचित निस्तारण, सीवेज (गंदे नाले) के प्रबंध में सुधार करने, और अंततः औषधियों को पर्यावरण अनुकूल बनाकर प्रदूषण को कम कर सकते हैं। परंतु विश्व की जनसंख्या में लगातार वृद्धि के कारण समस्या के और अधिक खराब होने की आशंका है। इसके अलावा, पूरे विश्व में उपयोग की जाने वाली हजारों औषधियों में से सभी औषधियों को संसूचित करने की कोई पद्धति नहीं है, और विश्लेषणात्मक पद्धतियां अंतरराष्ट्रीय रूप से मानकीकृत नहीं हैं। अतः संसूचित करने की सीमा अलग-अलग हो सकती हैं और कुछ औषधियों द्वारा वन्यजीवन या लोगों को प्रभावित करने की उनकी क्षमता के कारण वे अन्य औषधियों की अपेक्षा और भी अधिक हानिकारक होती हैं। इनमें प्रतिजैविक, प्रतिअवसादक, सूजनरोधी और पीड़ानाशक, बीटा-ब्लॉकर, गर्भनिरोधक गोलियां तथा हॉर्मोन प्रतिस्थापन चिकित्सा शामिल हैं।
इसमें औषधियों का अनुचित निस्तारण होता है, उदाहरणार्थ—जब लोग बची हुई औषधियों को सिंक में फेंक देते हैं या शौचालय में बहा देते हैं तो इससे औषधि जनित प्रदूषण में वृद्धि होती है। इन दोनों मामलों में, निस्तारित औषधियां सीवेज प्रबंधन संयंत्रों में पहुंच जाती हैं, सामान्य तौर पर इन संयंत्रों को अपशिष्ट जल से ऐसे प्रदूषकों को निकालने हेतु नहीं बनाया गया होता है।
प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न करने हेतु विभिन्न औषधियों के पारस्परिक क्रिया करने के तरीकों का अध्ययन करने की भी आवश्यकता है। औषधि बनाने वालों और डॉक्टरों को रोगियों को यह चेतावनी देनी चाहिए कि उन्हें आईबुप्रोफेन के साथ बीटा-ब्लॉकर को नहीं मिलाना चाहिए, क्योंकि इन औषधियों का मिश्रण पानी के स्रोत के रूप में पशुओं के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। कई प्रकार की समान औषधियां भी व्यसनकारी प्रभाव डाल सकती हैं।
औषधि अपशिष्ट के स्रोत पर नियंत्रण करना आवश्यक है, जो सीवेज प्रणालियों में प्रवेश करने वाली औषधियों की मात्रा को कम कर सकता है। हालांकि, इस प्रकार का नियंत्रण महंगा होगा। कुछ लोगों को लगता है कि औषधि उद्योग को एक ‘प्रदूषक भुगतान’ योजना के तहत अत्यधिक लागत वहन करनी चाहिए और औषधि कंपनियों को अपने उत्पादों के जीवन चक्र की अधिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
यह लोगों को अपनी औषधियों के भंडार के संभावित पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में शिक्षित करने में मदद कर सकता है और उन्हें अप्रयुक्त औषधियों के उचित निस्तारण के लिए उन औषधियों को फार्मेसी में लौटाने के लिए प्रेरित कर सकता है। अप्रयुक्त औषधियों के उचित निस्तारण के तरीकों और वास्तव में उनके उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
संयुक्त राज्य अमेरिका में, अनेक पर्यावरणीय समूह, स्वास्थ्य संगठन, पुलिस, औषधि विक्रेता और औषधि निर्माता, औषधियों को वापस लेने के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। दुर्भाग्यवश, लोग औषधियों के उचित निस्तारण के बारे में नहीं जानते।
यूरोप हेल्थ केयर विदाउट हार्म नामक एक सुरक्षित औषधि अभियान चलाता है, ताकि लोगों को फार्म और पर्यावरण के नकारात्मक संबंध को लेकर जागरूक किया जा सके, और औषधि उद्योग को उनके उत्पादन को स्वच्छ रखने की चुनौती देता है।
पूरे यूरोप में भौमजल और सतही जल में फार्मास्युटिकल्स पाए जाने पर मार्च 2019 में यूरोपीय आयोग ने स्ट्रैटेजिक अप्रोच टू फार्मास्युटिकल्स इन द एनवायरोनमेंट नामक एक रणनीति प्रस्तुत की, जिसमें ऐसी कार्य योजना शामिल है जो निस्तारण के प्रयोग के माध्यम से औषधियों के निर्माण से लेकर उत्पादन तक के संपूर्ण जीवनचक्र को शामिल कर प्रतिकूल प्रभावों का सामना करती है। यह जागरूकता बढ़ाने तथा बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग, प्रशिक्षण में सुधार और जोखिम मूल्यांकन, निगरानी आंकड़ों का एकत्रण, हरित डिजाइन को बढ़ावा देना, विनिर्माण से उत्सर्जन में कमी करना, और निस्तारण के उपयोग के माध्यम से उत्पादन जैसे छह क्षेत्रों में 30 से अधिक वैयक्तिक कृत्यों की पहचान करती है। नवम्बर 2020 में प्रकाशित इसकी समीक्षा ने उद्घाटित किया कि रणनीति के क्रियान्वयन के बेहद सकारात्मक परिणाम आए हैं और कुछ कार्य योजनाओं को इस गति से चलाया गया कि उन्हें पूरा कर लिया गया है। साथ ही यूरोपीय आयोग की यूरोपियन ग्रीन डील के तहत जीरो पॉल्यूशन एम्बिशन की दिशा में भी ईयू की नीतियां अग्रसर हैं।
वर्तमान में, उपयुक्त रूप से अनुमति प्राप्त सुविधा केंद्रों में अवशिष्ट विषाक्त औषधियों के लिए उच्च ताप भस्मीकरण की प्रक्रिया सबसे सुरक्षित निस्तारण विधि है। यह वह पद्धति है जिसका उपयोग औषधि उद्योग अपनी औषधियों के निस्तारण के लिए करता है।
स्वीडन में, औषधियों को उनके पर्यावरणीय प्रभावों के आधार पर ग्रेड दिए जाते हैं, और डॉक्टरों के लिए जहां विकल्प मौजूद हो, वहां उनके लिए कम हानिकारक औषधियों का नुस्खा लिखना आवश्यक होता है।
एक अधिक दीर्घकालिक समाधान संभवतः ‘अभिकल्प से सुदम्य’ (बिनाइन बाय डिजाइन) की अवधारणा में निहित है, जिसमें औषधियों को आरंभ से ही पर्यावरण के लिए कम हानिकारक रूप में बनाया जाता है। कई औषधियों में ऐसे विषाणु शामिल होते हैं जो जीव-विज्ञान में नहीं पाए जाते—जैसेकि हैलोजन (रासायनिक पदार्थ) समूह, जो इन रसायनों को शरीर और पर्यावरण में स्थायी रूप से बनाए रखते हैं। इनसे बचने की जरूरत है। पर्यावरण संबंधी चिंताओं के साथ प्रभावकारिता का संतुलन बनाने हेतु सलाह देने के लिए वैज्ञानिकों को औषधि की खोज प्रक्रिया में बहुत पहले से शामिल होना पड़ेगा। जल्द ही खराब हो जाने वाली, जैविक औषधियों के प्रयोग को बढ़ावा देने से औषधि जनित प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी।
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