चीन द्वारा किया गया शोध:साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, चीन के बीजिंग में वैज्ञानिकों ने एक नई जीन-चिकित्सा (जीन-थेरेपी) विकसित की है, जो चूहों में उम्र बढ़ने के कुछ प्रभावों को कम कर सकती है और उनके जीवनकाल को बढ़ा सकती है।
इस शोध के तहत जीव विज्ञानियों द्वारा लगभग 10,000 जीनों के परीक्षण करने के पश्चात, 100 ऐसे जीनों की पहचान की गई जो विशेष रूप से सेलुलर सनेसस (कोशिकीय जीर्णता के लिए प्रयुक्त शब्द) के सशक्त कारक थे। इन जीनों में से कोशिकीय जीर्णता के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी जीन या कुशल जीन, कैट7(Kat7) (स्तनधारियों की कोशिकाओं में पाए जाने वाले हजारों जीनों में से एक जीन) की खोज की गई।
प्रयोग के दौरान शोधकर्ताओं ने लेंटिवायरल वेक्टर पद्धति (जीन थेरेपी में प्रयुक्त इस पद्धति द्वारा लेंटिवायरस का प्रयोग करके जीव में जीन को रोपित, परिवर्तित, या समाप्त किया जाता है) से चूहों के यकृत में मौजूद कैट7 को निष्क्रिय कर दिया, जिसके सकारात्मक परिणामों के रूप में, छह से आठ माह पश्चात उन चूहों में समग्र रूप से सुधार देखा गया। साथ ही उनका जीवनकाल लगभग 25 प्रतिशत तक बढ़ गया। शोधकर्ताओं के अनुसार, कैट7 जीन के कार्यों का परीक्षण विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं—मनुष्य की मूल कोशिका, मनुष्य तथा चूहों के यकृत की कोशिका पर किया गया, जिसके पश्चात इन कोशिकाओं में किसी प्रकार की कोशिकीय विषाक्तता या दुष्परिणाम (यहां तक कि चूहों में भी) देखने को नहीं मिले और विश्व में पहली बार ऐसे सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए।
संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा किया गया शोधः इसी प्रकार, जर्नल नेचर में प्रकाशित स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के में अपने युवा प्रतिरूपों की तुलना में वृद्ध चूहों में धीमी स्मरणशक्ति, दिशाभ्रम तथा प्रौढ़ता संबंधी अन्य शोथों के कारक के रूप में मस्तिष्क, परिसंचरण तंत्र और शरीर के ऊतकों में पाई जाने वाली माइलॉयड नामक प्रतिरक्षी कोशिकाओं (माइलॉयड कोशिकाएं, शरीर में पीजीई2 नामक हॉर्मोन का प्रमुख स्रोतहैं जो प्रोस्टाग्लेंडिन परिवार से संबंधित हैं। यह हॉर्मोन शरीर में सभी प्रकार की सूजन को नियंत्रित करता है, और इसका प्रभाव सक्रिय ग्राही कोशिका की विविधता पर निर्भर करता है।) की ओर संकेत किया गया है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, माइलॉयड कोशिकाएं शरीर को बाहरी संक्रमण से बचाती हैं, और शरीर के अपशिष्ट को साफ कर अन्य कोशिकाओं को पोषण प्रदान करती हैं, लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य की आयु में वृद्धि होती जाती है, ये कोशिकाएं, शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले बाहरी कारकों से बचाने के स्थान पर स्वयं ही शरीर के ऊतकों को नुकसान पहुंचाने लगती हैं।
शोधकर्ताओं द्वारा पीईजी2 हॉर्मोन के ग्राही के रूप में ईपी2 की पहचान की गई, जो प्रतिरक्षी कोशिकाओं में, और विशेषकर माइलॉयड कोशिकाओं में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह पीजीई2 से बंधकर कोशिकाओं के भीतर शोथ-संबंधी गतिविधि शुरू करता है।
इस शोध के तहत, शोधकर्ताओं द्वारा वृद्ध चूहों के शरीर में दो प्रायोगिक यौगिक डालकर उनकी ग्राही कोशिकाओं में पीजीई2 हार्मोन को अवरुद्ध कर दिया गया, जिसके पश्चात उन्होंने पाया कि वृद्ध चूहों की बृहतभक्षक कोशिकाएं (मैक्रोफेजेस), शरीर के ऊतकों में स्थित माइलॉयड कोशिकाओं का एक वर्ग, न केवल युवा चूहों की अपेक्षा अधिक पीजीई2 निर्मित कर रही थीं, बल्कि उनके ऊपरी भाग पर ईपी2 की मात्रा भी अधिक थी।
शोधकर्ताओं के अनुसार, जैसाकि इस हॉर्मोन के उच्च स्तर ने चूहों की बृहतभक्षक कोशिकाओं (मैक्राफेजेस) के चयापचय को प्रभावित किया, जिससे वे इस ऊर्जा को नष्ट करने के बजाय उसे संचित करने में सक्षम थे। इसके साथ ही इस अवरोध ने वृद्ध चूहों में आयु-संबंधी मानसिक गिरावट, स्मरण क्षमता अैर दिशा-ज्ञान कौशल को पुनः बहाल किया, जिसके कारण वे युवा चूहों की भांति प्रदर्शन करने लगे।
शोधकर्ताओं ने पाया कि माइलॉयड कोशिकाएं एक सहज प्रवृत्ति से गुजरते हुए वृद्धि करती हैं, जो आयु से संबंधित पीजीई2-ईपी2 बंध द्वारा संचालित होती हैं, और इस ऊर्जा स्रोत द्वारा संचित ग्लूकोज को ऊर्जा उत्पादन में खर्च करने के स्थान पर ग्लाइकोजन नामक लंबी ग्लूकोज शृंखलाओं में परिवर्तित कर ग्लूकोज का संचय किया जाता है। संचित ग्लूकोज और कोशिकाएं बाद की कालानुक्रमिक ऊर्जा को क्षीण कर उन्हें एक तीव्र शोथ की अवस्था में ले जाती हैं, जो प्रौढ़ता के ऊतकों पर तीव्रता से प्रहार करता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इस प्रकार एक प्राणी प्रौढ़ता की ओर बढ़ता है, लेकिन इसे कम भी किया जा सकता है।
निष्कर्षः हालांकि, चीन और अमेरिका के वैज्ञानिकों द्वारा चूहों पर किए गए ये नए शोध, लोगों में वृद्धावस्था एवं बीमारियों के संभाव्य कारणों और उन्हें रोकने हेतु सशक्त उपायों का संकेत देते हैंतथा यह स्पष्ट करते हैं किवृद्धावस्था से संबंधित कोशिकीय जीर्णता और घातक शोथ एक स्थायी स्थिति नहीं हो सकते, बल्कि इन्हें कम या पूर्णतया बदला जा सकता है, तथापि ये शोध अभी अपने शुरुआती दौर में हैं। शोधकर्ताओं के सामने मनुष्यों की अन्य कोशिकाओं और चूहों के अन्य अंगों में कैट7 के कार्यों व प्रभावों तथा पशुओं एवं मनुष्य के शरीर में पीईजी2 की मात्रा और उसके संचय से संबंधित कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े हैं। इन शोधों में प्रयुक्त तकनीकों को मानव परीक्षणों के लिए पूर्ण रूप से तैयार होने से पूर्व एक लंबा रास्ता तय करना होगा, तथापि यह आशा की जा सकती है कि भविष्य में इस प्रकार की जीन-चिकित्सा मनुष्यों को भी कोशिकीय जीर्णता संबंधी समस्याओं से मुक्त करने में अपना योगदान देगी।