तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य, जहां भू-राजनीतिक गतिशीलता में निरंतर परिवर्तन और जलवायु परिवर्तन में चिंताजनक दर से वृद्धि हो रही है, के बीच रणनीतिक दूरदर्शिता और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के प्रति एक संकेतक प्रकट हुआ है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा मार्च 2022 में जारी भारत की आर्कटिक नीति: सतत विकास के लिए साझेदारी का निर्माण नामक नीति से आशा की एक किरण दिखाई दी है और इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी का ध्यान आकर्षित किया है। यह नीति न केवल संसाधन-संपन्न आर्कटिक क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा देने हेतु भारत की प्रतिबद्धता का, बल्कि जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध इसके दृढ़ रुख और इस संकटपूर्ण पर्यावरण की संरक्षा की तत्काल आवश्यकता का भी प्रतीक है।
वास्तव में, इस नीति को इसका समग्र दृष्टिकोण उल्लेखनीय बनाता है, जो छह केंद्रीय स्तंभों पर आधारित है—(i) विज्ञान एवं अनुसंधान; (ii) जलवायु और पर्यावरण संरक्षण; (iii) आर्थिक एवं मानव विकास; (iv) परिवहन एवं कनेक्टिविटी (संपर्क व्यवस्था); (v) शासन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग; तथा (vi) राष्ट्रीय क्षमता निर्माण। यह बहुआयामी रणनीति आर्कटिक क्षेत्र में भारत की व्यापक भागीदारी को रेखांकित करती है, जो इस क्षेत्र की दीर्घकालिक स्थिरता और वैश्विक महत्व पर ध्यान केंद्रित करने के लिए केवल संसाधन दोहन से कहीं बढ़ कर है। हालांकि, इस नीति के जारी होने के समय का महत्व कम नहीं है। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद से प्रभावित हुए विश्व में, आर्कटिक क्षेत्र विश्व की प्रमुख शक्तियों के लिए एक रणनीतिक केंद्र बिंदु बन गया है। आर्कटिक परिषद, जो इस क्षेत्र के मामलों की देखरेख के लिए उत्तरदायी है, में एक उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है जैसाकि रूस, इसके वर्तमान अध्यक्ष, को यूक्रेन में अंतरराष्ट्रीय कानून के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन करने के आरोपों का लगातार सामना करना पड़ रहा है। आर्कटिक सहित पड़ोसी क्षेत्रों के साथ यूरोप को जोड़ने के लिए यूक्रेन के रणनीतिक महत्व ने आर्कटिक मुद्दों की वैश्विक जांच तेज कर दी है, जिससे भारत की आर्कटिक नीति वैश्विक स्तर पर और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
भारत के आर्कटिक मिशन के अंतर्गत—(i) आर्कटिक क्षेत्र के साथ भारत का सहयोग संवर्धित करना; (ii) तीसरे ध्रुव—हिमालय में ध्रुवीय अनुसंधान का एकीकरण; (iii) आर्कटिक क्षेत्र के बारे में मानवजाति की समझ बढ़ाने के प्रयासों में योगदान देना; (iv) जलवायु परिवर्तन का मुकाबला और पर्यावरण की सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों को मजबूती प्रदान करना; और (v) भारत में आर्कटिक के अध्ययन और इसकी समझ को बढ़ाना, शामिल हैं।
पेसर योजना
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त संस्थान के रूप में, राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (एनसीपीओआर) ने ध्रुवीय विज्ञान और हिमांकमंडल अनुसंधान (पेसर) योजना को प्रभावी ढंग से लागू किया, जिसमें अंटार्कटिक कार्यक्रम, भारतीय आर्कटिक कार्यक्रम, दक्षिणी महासागर कार्यक्रम, तथा हिमांकमंडल और जलवायु कार्यक्रम शामिल हैं।
पेसर योजना को 2021 से 2026 तक जारी रखने के लिए अनुमोदन प्राप्त हो चुका है।
पृष्ठभूमि
भारत 1920 में स्वालबार्ड संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद से ही आर्कटिक क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। इस संधि से भारत स्पिट्सबेरगेन के आर्कटिक द्वीप से संबंधित देशों के समूह में शामिल हो गया। स्पिट्सबेरगेन नॉर्वे का भाग और स्वालबार्ड द्वीपसमूह में सबसे बड़ा द्वीप है, जो आर्कटिक महासागर के बीच स्थित है, तथा व्यापक हिम व्याप्ति क्षेत्र, अत्युच्च पर्वत और सुरम्य फियॉर्ड (खड़ी चट्टानों के बीच का लंबा संकरा समुद्री मार्ग) इसकी विशेषताएं हैं। तब से, भारत ने आर्कटिक विकास का सावधानीपूर्वक अवलोकन किया है, तथा इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन को समझने पर ध्यान केंद्रित करते हुए वर्ष 2007 में अपना आर्कटिक अनुसंधान कार्यक्रम शुरू किया था। इस कार्यक्रम में आर्कटिक की जलवायु और भारत के मानसून पैटर्न के बीच जटिल संबंधों की जांच करना, समुद्री बर्फ का अध्ययन करने के लिए उपग्रह डेटा का उपयोग करना और वैश्विक तापन पर इसके प्रभाव का आकलन करना शामिल है। भारत का आर्कटिक अनुसंधान वैज्ञानिक विषयों के व्यापक विस्तार (स्पेक्ट्रम) तक फैला हुआ है, जिसमें हिमानिकी (बर्फ और उसके विभिन्न रूपों, प्रकृति, वितरण, क्रिया और उसके परिणामों का वैज्ञानिक अध्ययन) जांच के साथ-साथ वायुमंडलीय, जैविक, समुद्री और पृथ्वी विज्ञान भी शामिल हैं। वायुमंडलीय अनुसंधान में, वायु-विलय (एरोसॉल) और पूर्ववर्ती गैसों के गुणों और प्रभावों के साथ-साथ ऑरोरल आयनोस्फीयर (उत्तरी और दक्षिणी गोलार्धों में उच्च तुंगता वाला क्षेत्र) पर अंतरिक्ष मौसम के प्रभावों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। जैविक अध्ययनों के तहत समुद्री बर्फ में सूक्ष्मजीवी समुदायों की खोज की जाती है, जबकि समुद्री अनुसंधान के तहत अन्य पारिस्थितिक मापदंडों के बीच पादपप्लवक (फाइटोप्लांकटन) वर्णकों, पोषक स्तरों, पीएच (pH), घुलनशील ऑक्सीजन और समुद्री जल की लवणता की जांच की जाती है। पृथ्वी विज्ञान और हिमानिकी अवलोकनों में तुहिन पुंज (स्नो पैक) के भीतर कार्बन मोनोक्साइड उत्पादन और इसकी दैनिक विविधताओं का अध्ययन शामिल है। भारत का अनुसंधान आर्कटिक हिमनदों के गतिक और संहति संतुलन (मास बैलेंस), समुद्र-स्तर में परिवर्तन, तथा आर्कटिक वनस्पति-जीव समूह की व्यापक जांच तक फैला हुआ है, जो इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में वैज्ञानिक अन्वेषण और पर्यावरण प्रबंधन दोनों के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भारत 2008 में एनवाई-अलेसंड विज्ञान प्रबंधक समिति (एनवाई-एसएमएसी) का सदस्य बना। हिमाद्रि में भारतीय आर्कटिक वेब पोर्टल औपचारिक रूप से शुरू किया गया।
भारत की पहली मल्टीसेंसर दलदली (Moor) वेधशाला, इंडआर्क 2014 में कांग्सजार्डन में शुरू की गई थी। 2016 में, भारत की सबसे उत्तरी वायुमंडलीय प्रयोगशाला ग्रुवबदैत में स्थापित की गई थी। हालांकि, भारतीय आर्कटिक कार्यक्रम के विकास की प्रमुख नींव वर्ष 2013 में रखी गई, जब भारत को आर्कटिक परिषद में स्थायी पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त हुआ और 2019 में परिषद के पर्यवेक्षक के रूप में फिर से चुना गया।
हिमाद्रि
हिमाद्रि (बर्फ का निवास स्थल) भारत का पहला उद्घाटित अनुसंधान स्टेशन है जो नॉर्वे के स्वालबार्ड के एनवाई-अलेसंड में अंतरराष्ट्रीय आर्कटिक अनुसंधान बेस के भीतर स्थित है। उत्तरी ध्रुव से लगभग 1,200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, इसका आधिकारिक उद्घाटन 2008 में किया गया था। यह आर्कटिक में अनुसंधान प्रयासों के संचालन के लिए आवश्यक व्यापक क्षेत्र और प्रयोगशाला सहायता प्रदान करने वाले एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में कार्य करता है, जिसमें दक्षिणी ध्रुव एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीएओआर) आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आर्कटिक क्षेत्र और इसका महत्व
आर्कटिक महासागर क्षेत्र अपने रणनीतिक और आर्थिक महत्व के कारण न केवल आर्कटिक देशों के लिए बल्कि अन्य देशों के लिए भी रुचि का केंद्र बिंदु बन गया है। इस विशाल क्षेत्र में आर्कटिक महासागर, निकटवर्ती समुद्र और अलास्का (अमेरिका) के कुछ हिस्से, कनाडा, फिनलैंड, ग्रीनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, रूस और स्वीडन शामिल हैं, जिनमें एक महत्वपूर्ण स्वदेशी आबादी सहित लगभग चार मिलियन (40 लाख) निवासी रहते हैं। रूस के पास आर्कटिक में सबसे बड़ा विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) है। हालांकि, पिघलते हिमखंडों के कारण इसके एक बड़े हिस्से के अंतरराष्ट्रीय जलक्षेत्र बनने की संभावना बढ़ गई है।
आर्कटिक का महत्व तीन महत्वपूर्ण कारकों द्वारा रेखांकित किया गया है: (i) इसके तापन की चिंताजनक दर, वैश्विक औसत से तीन गुना तेज, जिससे जलवायु परिवर्तन और तटीय क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं; (ii) सुदूर पूर्व को यूरोप से जोड़ने वाले एक छोटे पोत परिवहन मार्ग के रूप में इसकी क्षमता; तथा (iii) खनिज और हाइड्रोकार्बन संसाधनों का इसका विशाल भंडार, यहां विश्व के 22 प्रतिशत तेल और प्राकृतिक गैस के साथ-साथ वैश्विक दुर्लभ पृथ्वी खनिजों का 25 प्रतिशत होने का अनुमान है।
आर्कटिक क्षेत्र से संबद्ध चुनौतियां
- तीव्र जलवायु परिवर्तन: वैश्विक तापन के कारण आर्कटिक सागर की बर्फ के पिघलने में तेजी आई है, जिससे इस क्षेत्र में पर्यावरणीय प्रभाव और अधिक मानव गतिविधियों की संभावना के बारे में चिंताएं बढ़ गई हैं।
- पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी संबंधी चिंताएं: बढ़ती मानव गतिविधियों के साथ समुद्री बर्फ और स्थायी तुषार भूमि (पर्माफ्रॉस्ट अर्थात स्थायी रूप से हिमशीतित मृदा) में कमी संयुक्त रूप से संकटपूर्ण आर्कटिक पारितंत्र के लिए जोखिम खड़ा करती है, जिससे वैश्विक स्तर पर मौसम और जलवायु की स्थिति में संभावित रूप से बाधा उत्पन्न होती है।
- आर्कटिक के संसाधन हेतु प्रतिस्पर्धा: बदलते परिवेश ने “आर्कटिक गोल्ड रश” (आर्कटिक क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों के लिए बढ़ती रुचि और प्रतिस्पर्धा) की संभावना को जन्म दिया है, जिससे राष्ट्र इस क्षेत्र में मौजूद तेल, गैस और अन्य प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, साथ ही अपने क्षेत्रीय दावों का भी विस्तार कर रहे हैं।
- पोत परिवहन मार्ग: जैसे-जैसे समुद्री बर्फ कम हो रही है, आर्कटिक क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय पोत परिवहन के लिए वैकल्पिक मार्ग बन सकता है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर मार्ग, जो स्वेज नहर से यात्रा करने पर पारंपरिक मार्गों की तुलना में काफी छोटा पड़ता है। हालांकि, यह तकनीकी, पर्यावरणीय और परिचालन संबंधी चुनौतियां खड़ी करता है।
- स्वदेशी समुदाय: आर्कटिक में स्वदेशी समुदायों के आर्थिक विकास को संसाधनों तक पहुंच में वृद्धि से सहायता मिल सकती है, लेकिन इससे उनके जीवन के पारंपरिक तरीकों और उस पर्यावरण को भी खतरा है जिसे वे संरक्षित करना चाहते हैं।
- राजनीतिक और सुरक्षा संबंधी चिंताएं: आर्कटिक में संप्रभु अधिकार और क्षेत्राधिकार आठ आर्कटिक देशों के पास हैं, लेकिन नई चुनौतियों, जिनमें क्षेत्रीय विवाद, सैन्य तैनाती और कानूनी दावे शामिल हैं, से इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता के बाधित होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त, तेल रिसाव और पर्यावरणीय आपदाओं जैसे गैर-पारंपरिक सुरक्षा मुद्दों के अब सुरक्षा संबंधी निहितार्थ हैं।
- भू-आर्थिक महत्व: आर्कटिक के बढ़ते आर्थिक महत्व ने पर्यावरण संरक्षण के मुद्दों को भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं का विषय बना दिया है।
आर्कटिक क्षेत्र अत्यधिक भू-राजनीतिक महत्व रखता है, जो मुख्य रूप से वैश्विक पोत परिवहन मार्गों पर पड़ने वाले परिवर्तनकारी प्रभाव से प्रेरित है। जैसाकि मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (एमपी-आईडीएसए) के एक विश्लेषण के अनुसार, आर्कटिक परिवर्तनों के प्रतिकूल परिणाम खनिज और हाइड्रोकार्बन संसाधनों की उपलब्धता से परे अंतरराष्ट्रीय समुद्री मार्गों के गहन पुनर्विरचन (रिशेप) तक विस्तारित हैं। जैसाकि विदेश मंत्रालय ने उल्लेख किया है कि भारत के पास आर्कटिक क्षेत्र में स्थिरता सुनिश्चित करने में रचनात्मक भूमिका निभाने की क्षमता है, विशेषकर जब इस क्षेत्र के 2050 तक बर्फ मुक्त होने का अनुमान लगाया गया है, जो उसके प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के लिए उत्सुक वैश्विक शक्तियों का ध्यान आकर्षित करेगा।
आर्कटिक परिषद और करार
आर्कटिक काउंसिल एक प्रमुख अंतर-सरकारी मंच के रूप में कार्य करता है जो आर्कटिक राष्ट्रों, स्वदेशी समुदायों और अन्य लोगों के बीच सहयोग, समन्वय और परस्पर संवाद को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है, जिसका प्राथमिक फोकस सामान्य आर्कटिक चुनौतियों, विशेष रूप से इस क्षेत्र में सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित चुनौतियों, से निपटने पर है। सर्वसम्मति से संचालित इकाई के रूप में कार्य करते हुए, आर्कटिक परिषद जैव विविधता परिवर्तन, समुद्री बर्फ के तेजी से पिघलने, प्लास्टिक प्रदूषण और आर्कटिक पर्यावरण पर ब्लैक कार्बन के प्रभाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
आर्कटिक परिषद का इतिहास 1991 में आर्कटिक पर्यावरण संरक्षण रणनीति (एईपीएस) की स्थापना से जुड़ा है, जिसने कनाडा, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडन, रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे आर्कटिक राष्ट्रों को शामिल करते हुए पर्यावरण संरक्षण पहल पर अंतर-सरकारी सहयोग की नींव रखी। महत्वपूर्ण बात यह है कि एईपीएस ने पैतृक भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता देते हुए आर्कटिक के स्वदेशी समुदायों के साथ जुड़ने और उनसे परामर्श करने की मांग की।
एईपीएस ने पर्यवेक्षकों के रूप में इनुइट, सामी और रूसी स्वदेशी लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन इंडिजीनियस पीपल्स ऑर्गेनाइजेशन (IPOs)—इनुइट सर्कम्पोलर काउंसिल (आईसीसी), सामी काउंसिल (एससी) और रशियन एसोसिएशन ऑफ इंडिजिनस पीपल्स ऑफ द नॉर्थ (आरएआईपीओएन)—का स्वागत किया। आर्कटिक के साथ स्वदेशी लोगों के विशिष्ट संबंधों को मान्यता प्रदान करते हुए, आर्कटिक देशों ने इन तीन IPOs पर स्थायी प्रतिभागियों (PPs) को विशेष स्थिति प्रदान की, जिससे उन्हें एईपीएस पर्यवेक्षकों की तुलना में विशिष्ट की स्थिति प्राप्त हुई।
आर्कटिक परिषद की संगठनात्मक संरचना में इसके आठ सदस्य देश, स्वदेशी समुदाय और अन्य आर्कटिक निवासी शामिल हैं। ओटावा घोषणा द्वारा 1996 में स्थापित, इस परिषद को आर्कटिक पर्यावरण की रक्षा करने और स्वदेशी लोगों, जिनके संगठन परिषद में स्थायी भागीदार का दर्जा रखते हैं, के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कल्याण को बढ़ाने का काम सौंपा गया है।
ओटावा डेक्लरेशन (घोषणा) के अनुसार आर्कटिक परिषद के सदस्य देशों में कनाडा, डेनमार्क साम्राज्य (जो ग्रीनलैंड और फरो आइलैंड्स का प्रतिनिधित्व करता है), फिनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, रूसी संघ, स्वीडन और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
पर्यवेक्षक देशों में जर्मनी, नीदरलैंड, पोलैंड, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, स्पेन, चीन, भारत, इटली, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और स्विट्जरलैंड शामिल हैं। परिषद में स्थायी भागीदार भी हैं, जिनमें अलेउत इंटरनेशनल एसोसिएशन (एआईए), आर्कटिक अथाबास्कन काउंसिल (एएसी), ग्विच’इन काउंसिल इंटरनेशनल (जीसीआई), इनुइट सर्कम्पोलर काउंसिल (आईसीसी), रशियन एसोसिएशन ऑफ इंडिजिनस पीपल्स ऑफ द नॉर्थ (आरएआईपीओएन), और सामी काउंसिल शामिल हैं।
यह परिषद अंतर-सरकारी, अंतर-संसदीय, वैश्विक, क्षेत्रीय और गैर-सरकारी संगठनों के साथ-साथ गैर-आर्कटिक राष्ट्रों के लिए खुली है, जिन्हें परिषद निर्धारित करती है कि वे इसके काम में योगदान दे सकते हैं। इसे प्रत्येक दो वर्षों में एक बार होने वाली मंत्रिस्तरीय बैठकों में परिषद द्वारा अनुमोदित किया जाता है।
परिषद लगातार पर्यावरणीय, पारिस्थितिक और सामाजिक पहलुओं को शामिल करते हुए गहन, अत्याधुनिक आकलन तैयार करती है, जो इसके कार्य समूहों—(i) उत्तरी ध्रुव निगरानी एवं मूल्यांकन कार्यक्रम (एएमएपी); (ii) उत्तरी ध्रुव वनस्पति एवं जीव संरक्षण (सीएएफएफ); (iii) आपातकालीन तैयारी, निवारक और प्रतिक्रिया (ईपीपीआर); (iv) उत्तरी ध्रुव समुद्री पर्यावरण सुरक्षा (पीएएमई); (v) सतत विकास कार्य समूह (एसडीडब्ल्यूजी); और (vi) आर्कटिक (उत्तरी ध्रुव) दूषित पदार्थ कार्रवाई कार्यक्रम (एसीएपी) द्वारा सुगम बनाया जाता है।
इस परिषद के ढांचे के भीतर, आठ आर्कटिक देशों के बीच कानूनी रूप से बाध्यकारी तीन महत्वपूर्ण अनुबंधों पर समझौता किया गया है।
- आर्कटिक में प्रारंभिक अनुबंध, जिसे वैमानिकी और समुद्री खोज एवं बचाव संबंधी सहयोग पर अनुबंध के नाम से जाना जाता है, को औपचारिक रूप से 2011 में नुउक, ग्रीनलैंड में आयोजित मंत्रिस्तरीय बैठक के दौरान समर्थन दिया गया था।
- आर्कटिक में समुद्री तेल प्रदूषण से बचाव की तैयारी और प्रतिक्रया संबंधी सहयोग पर अनुबंध को स्वीडन के किरुना में 2013 की मंत्रिस्तरीय बैठक में अनुमोदित किया गया था।
- तीसरा महत्वपूर्ण करार, जिसका शीर्षक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक सहयोग को बढ़ाने संबंधी करार है, पर आधिकारिक तौर पर फेयरबैंक्स, अलास्का में 2017 की मंत्रिस्तरीय बैठक के दौरान हस्ताक्षर किए गए थे।
भारत की आर्कटिक नीति के बारे में
भारत की आर्कटिक नीति, 2022 छह स्तंभों पर आधारित है, जैसाकि पहले उल्लेख किया गया है, यहां, हम उनका संक्षिप्त विवरण देंगे।
विज्ञान एवं अनुसंधान: आर्कटिक, अंटार्कटिक और हिमालयी अनुसंधान में भारत की दीर्घकालिक भागीदारी इसे आर्कटिक विज्ञान में एक मूल्यवान योगदानकर्ता के रूप में स्थापित करती है। भारत का लक्ष्य निम्नलिखित कारकों के लिए अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं को मजबूत करना और आर्कटिक अनुसंधान और नीति निर्माण में वैश्विक साझेदारी और सहयोग को बढ़ावा देना है:
- भारत, वर्ष भर की उपस्थिति सुनिश्चित करते हुए और अतिरिक्त आर्कटिक अनुसंधान स्टेशनों की स्थापना करते हुए उन्नत अवलोकनों और उपकरणों के साथ एनवाई अलेसंड, स्वालबार्ड में हिमाद्रि अनुसंधान बेस को सुदृढ़ कर अपने आर्कटिक अनुसंधान प्रयासों को मजबूत करने के लिए समर्पित है।
- भारत, आर्कटिक परिषद और अंतरराष्ट्रीय उत्तरी ध्रुव विज्ञान समिति (आईएएससी) जैसे प्रतिष्ठित भागीदारों के सहयोग से स्वालबार्ड इंटीग्रेटेड आर्कटिक अर्थ ऑब्जर्विंग सिस्टम और सस्टेनिंग आर्कटिक ऑब्जर्वेशन नेटवर्क के साथ अपनी अनुसंधान पहल को सक्रिय रूप से समर्थन दे रहा है।
- आर्कटिक क्षेत्र में भारत का अनुसंधान एजेंडा सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक, मानवशास्त्रीय, नृवंशवैज्ञानिक और पारंपरिक ज्ञान के क्षेत्रों में विविध क्षेत्रों तक फैला हुआ है।
- गतिशीलता और अन्वेषण को बढ़ाने के लिए, भारत एक विशेष आइस-क्लास ध्रुवीय अनुसंधान जलयान खरीद रहा है और जलयानों के निर्माण के लिए स्वदेशी क्षमताओं का विकास कर रहा है।
- इसके अलावा, भारत आर्कटिक अध्ययन की प्रगति के लिए वायुमंडलीय और महासागर विज्ञान, ग्लेशियोलॉजी (हिमानिकी), समुद्री पारितंत्र अनुसंधान, जियोलॉजी (भूविज्ञान), जियोइंजीनियरिंग, कोल्ड बायोलॉजी, पारिस्थितिकी और जैव विविधता सहित विभिन्न ध्रुवीय अनुसंधान विषयों से विशेषज्ञता का उपयोग करता है।
- भारत में आर्कटिक से संबंधित कार्यक्रमों की मेजबानी के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय आर्कटिक संगठनों और सहकारी पहलों में सक्रिय भागीदारी, आर्कटिक पर्यावरण को समझने और संरक्षित करने में वैश्विक सहयोग के प्रति देश की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।
आर्कटिक क्षेत्र में भारत का अंतरिक्षीय योगदान
भारत, एक उन्नत अंतरिक्ष कार्यक्रम के साथ, आर्कटिक अध्ययन के लिए इसरो के आरआईएसएटी—रडार इमेजिंग उपग्रह शृंखला और ऑप्टिकल इमेजिंग (प्रतिबिंबन) का उपयोग करता है। भारत की क्षेत्रीय नौचालन उपग्रह प्रणाली (आईआरएनएसएस) आर्कटिक समुद्री नौचालन में सहायता करती है। 2024 में प्रक्षेपित होने वाला NASA-ISRO का एन.आई.सार (निसार) मिशन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और संसाधन प्रबंधन को समझने के लिए डेटा प्रदान करेगा। भारत की उपग्रह विशेषज्ञता कम कनेक्टिविटी वाले आर्कटिक में डिजिटल कनेक्टिविटी में सुधार कर सकती है।
रिमोट सेंसिंग और उपग्रह सेवाओं के लिए भारत की आर्कटिक भागीदारी में—
- आर्कटिक क्षेत्र में रिमोट सेंसिंग (सुदूर संवदेन) क्षमताओं का विस्तार करना;
- भूमि और जल प्रबंधन के लिए भारत के रिसोर्ससैट डेटा को पारस्परिक रूप से साझा करने के लिए आर्कटिक देशों के साथ सहयोग करना; (रिसोर्ससैट, इसरो द्वारा निर्मित एक उन्नत रिमोट सेंसिंग उपग्रह है।)
- दूरसंचार, कनेक्टिविटी, समुद्री सुरक्षा, नौवहन, खोज और बचाव, जल सर्वेक्षण, जलवायु मॉडलिंग (प्रतिरूपण), पर्यावरण संबंधी निगरानी और चौकसी, समुद्री संसाधनों का मानचित्रण और सतत प्रबंधन जैसी सेवाओं के लिए आर्कटिक सुविधाएं विकसित करना; और
- ध्रुवीय कक्षाओं में स्थित भारतीय उपग्रहों के इष्टतम उपयोग के लिए आर्कटिक में उपग्रह ग्राउंड स्टेशन स्थापित करना शामिल है।
जलवायु और पर्यावरण संरक्षण: भारत का लक्ष्य आर्कटिक में वैज्ञानिक अनुसंधान करना और इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अध्ययन के महत्व की पहचान करना है, ताकि वैश्विक प्रतिक्रिया तंत्र को निम्न पहलों द्वारा सुधारा जा सके—
- पृथ्वी प्रणाली के प्रतिरूपण में सुधार करने के लिए भागीदारों के साथ मिलकर कार्य करना, जिससे विश्व के मौसम और जलवायु पूर्वानुमानों में सुधार लाया जा सके।
- आर्कटिक जैव विविधता और सूक्ष्म जीव विविधता के संरक्षण के लिए पारिस्थितिक तंत्र के मूल्यों, समुद्री संरक्षित क्षेत्रों और पारंपरिक ज्ञान तंत्र पर केंद्रित अनुसंधान में सक्रिय रूप से भाग लेकर।
- आर्कटिक में पर्यावरण प्रबंधन में योगदान देकर विभिन्न मुद्दों जैसेकि—मीथेन का उत्सर्जन, ब्लैक कार्बन उत्सर्जन, महासागर में सूक्ष्म-प्लास्टिक्स, समुद्री कचरा और समुद्री स्तनधारी जीवों पर उनके प्रतिकूल प्रभाव को संबोधित कर।
- अंतरराष्ट्रीय साझेदारों और आर्कटिक परिषद के अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक विशेषज्ञ समूह (एसएलसीपीईजी) के साथ सहयोग कर।
- आर्कटिक परिषद के ईपीपीआर कार्य समूह के साथ मिलकर आर्कटिक में पर्यावरणीय आकस्मिकताओं, खोज और बचाव कार्यों में योगदान देने और प्राकृतिक एवं मानव निर्मित आपदाओं और दुर्घटनाओं को संबोधित कर।
- प्राकृतिक संसाधनों और चक्रीय अर्थव्यवस्था पर आधारित ज्ञान के आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिए आर्कटिक वनस्पति और जीवों का संरक्षण, तथा आर्कटिक समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा पर आर्कटिक परिषद के कार्य समूहों के साथ सहयोग कर।
- आर्कटिक क्षेत्र में वैज्ञानिक और आर्थिक गतिविधियों में शामिल भारतीय उद्यमों के बीच उच्च पर्यावरणीय मानकों के अनुपालन को बढ़ावा देकर, जिससे संधारणीय प्रथाओं को बल मिले।
आर्थिक और मानव विकास सहयोग: भारत आर्थिक सहयोग के क्षेत्र में इस प्रकार शामिल होना चाहता है जो स्थायी हो और मूल समुदाय के साथ-साथ आर्कटिक निवासियों के लिए महत्वपूर्ण हो, जो विभिन्न क्षेत्रों में अवसर प्रदान करता हो जहां भारतीय उद्यम भागीदार हो सकते हैं।
- भारत का आर्कटिक आर्थिक विकास संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (यूएन एसडीजी) के अनुरूप है, जो आर्कटिक आर्थिक परिषद के सिद्धांतों के अनुसार सतत व्यापार प्रथाओं पर बल देता है।
- आर्कटिक में विशाल अप्रयुक्त हाइड्रोकार्बन और तांबा, फास्फोरस, नायोबियम, प्लैटिनम—समूह तत्व तथा दुर्लभ पृथ्वी-भंडार जैसे खनिज भंडार हैं। भारत का लक्ष्य नियमित आधार पर पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव का आकलन करते हुए इन संसाधनों के मूल्यांकन में आर्कटिक राष्ट्रों की सहायता करना है।
- आर्कटिक क्षेत्रों की सुदूरता को स्वीकार करते हुए, भारत अक्षय ऊर्जा स्रोतों, जैसे जलविद्युत, जैव ऊर्जा, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, भूतापीय और महासागर ऊर्जा, को सतत विकास के लिए महत्वपूर्ण मानता है। अक्षय ऊर्जा में सहयोगात्मक परियोजनाओं की खोज की जा रही है।
- भारत सतत संसाधन अन्वेषण, निवेश और आर्थिक सहयोग के लिए आर्कटिक राष्ट्रों के साथ साझेदारी को मजबूत करना चाहता है। संयुक्त अन्वेषण परियोजनाओं और उत्तरदायी संसाधन विकास के अवसरों की पहचान करना इसकी प्राथमिकता है।
- भारत आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए इस क्षेत्र में ई-कॉमर्स और तकनीकी संपर्क को बढ़ावा देने हेतु आर्कटिक देशों के साथ डिजिटल भागीदारी स्थापित करना चाहता है।
- अपतटीय अन्वेषण/खनन, बंदरगाहों, रेलवे, सूचना संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी), और हवाई अड्डों सहित आर्कटिक की आधारभूत अवसंरचना में निवेश के अवसरों की पहचान करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत सरकार का उद्देश्य इन क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखने वाली भारतीय सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की संस्थाओं को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करने का भी है।
- सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से आर्कटिक में निजी निवेश बढ़ाने के लिए भारतीय उद्योग और वाणिज्य मंडलों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत सरकार आर्कटिक आर्थिक परिषद में भारतीय कंपनियों की सदस्यता और इसके कार्य समूहों के साथ संबद्धता को बढ़ावा देना चाहती है।
- आर्कटिक में ऑफ-ग्रिड अक्षय ऊर्जा, जैव ऊर्जा और स्वच्छ प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए साझेदारी के अवसरों की खोज भी की जा रही है।
- जैव विविधता को संरक्षित करने और संधारणीयता को बढ़ाने के लिए क्रायोस्फेरिक (जमे हुए जल) क्षेत्रों में पूर्ण रूप से सुरक्षित बीज भंडारण सुविधाएं विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है।
मानव विकास: जलवायु परिवर्तन और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों, आर्कटिक के स्वदेशी समुदायों द्वारा सामना की जा रही चुनौतियों के समान, से निपटने में भारत की विशेषज्ञता लाभदायक हो सकती है। इस संदर्भ में भारत का लक्ष्य:
- आर्कटिक राष्ट्रों के साथ कम लागत वाले सामाजिक नेटवर्क और डिजिटलीकरण को साझा करना है। इसके अतिरिक्त, भारत उत्तरदायी आर्कटिक समुद्री पर्यटन प्रथाओं का समर्थन करता है, जो वैश्विक आय और स्थानीय समुदायों में योगदान देती हैं।
- आर्कटिक देशों के साथ सहयोग करना, शासन में विशेषज्ञता साझा करना, तथा स्वदेशी और अन्य समुदायों का कल्याण सुनिश्चित करना है।
- भारत आर्कटिक क्षेत्र के भीतर उत्तरदायी पर्यटन प्रथाओं को बढ़ावा देने, स्थायी पर्यटन पहल में योगदान देने के लिए प्रतिबद्ध है।
- अपनी औषध विशेषज्ञता का लाभ उठाते हुए, भारत आर्कटिक स्वास्थ्य देखभाल का समर्थन करने के लिए टेलीमेडिसिन, रोबोटिक्स, नैनोटेक्नोलॉजी और जैव प्रौद्योगिकी सहित स्वास्थ्य सेवाओं और उन्नत तकनीकी समाधानों की पेशकश करने की योजना बना रहा है।
- भारत आयुर्वेद, सिद्धा और यूनानी जैसी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में साझेदारी विकसित करेगा, जो आर्कटिक में स्वास्थ्य देखभाल में संभवतः सुधार करेगा।
- हिमालय और आर्कटिक में स्वदेशी समुदायों के बीच परस्पर संवाद को सुविधाजनक बनाने, आपस में एक-दूसरे से सीखने और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने का है।
परिवहन और कनेक्टिविटी: नाविक आपूर्ति में तीसरे स्थान पर स्थित भारत के पास ऐसे समुद्री मानव संसाधन हैं जो आर्कटिक के बढ़ते नौवहन यातायात की बढ़ती मांगों को पूरा करने में सक्षम हैं, जिसका 2024 तक 80 मिलियन टन तक पहुंचना अपेक्षित है। अपनी सुविकसित हाइड्रोग्राफिक क्षमता का लाभ उठाते हुए, भारत अंटार्कटिक हाइड्रोग्राफिक प्रयासों में अपनी भागीदारी के आधार पर आर्कटिक मार्गों के सर्वेक्षण और मानचित्रण में योगदान दे सकता है। इसके अतिरिक्त, भारत का लक्ष्य ब्लैक कार्बन, नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर ऑक्साइड जैसे प्रदूषकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए आर्कटिक के अपरिवर्तित पर्यावरण पर इनके प्रभाव को कम करने के लिए ध्रुवीय वर्ग (पोलर क्लास) के जहाजों से उत्सर्जन का आकलन करने हेतु पर्यावरण निगरानी अध्ययन में भाग लेना है।
भारत के लक्ष्य हैं—
- आर्कटिक क्षेत्र में पर्यावरण और विनियमन की निगरानी करना;
- जल सर्वेक्षण और महासागरीय आंकड़ों का संग्रह करना;
- बॉयज (buoyage—उत्पलावों का एक समूह) और शिप रिपोर्टिंग सिस्टम (जहाज सूचना प्रणाली) सहित समुद्री सुरक्षा सुविधाएं स्थापित करना;
- आर्कटिक में परिचालन करने वाले जल पोत की उपग्रह निगरानी करना;
- बर्फ श्रेणी के जलपोतों के निर्माण में सहयोग करना;
- आईएमओ नियमों के अनुरूप स्थायी जहाजरानी प्रौद्योगिकी पर ज्ञान साझा करना;
- आर्कटिक पारगमन में कार्यरत जहाजों के चालक दल के रूप में भारतीय नाविकों के लिए अवसरों को बढ़ावा देना;
- अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे को एकीकृत गहन जल प्रणाली से जोड़ना और आर्कटिक तक इसको विस्तारित करना; और
- नौपरिवहन लागत को कम करना और समुद्री तटीय क्षेत्रों के विकास को बढ़ावा देना।
शासन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग: आर्कटिक क्षेत्र एक जटिल शासन व्यवस्था के तहत प्रचालित होता है, जिसमें राष्ट्रीय घरेलू कानूनों, द्विपक्षीय करारों, वैश्विक संधियों, तथा मूल निवासियों के अभिसमयों के साथ-साथ प्रथागत कानून भी शामिल हैं। आर्कटिक परिषद, एक उच्च स्तरीय अंतर-सरकारी मंच है, 6 कार्य समूहों द्वारा समर्थित पर्यावरणीय संरक्षण और स्थायी विकास पर केंद्रित है। इसके अतिरिक्त, आर्कटिक आर्थिक परिषद जैसे स्वतंत्र मंच व्यावसायिक गतिविधियों और स्थायी विकास को बढ़ावा देते हैं। संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संबंधी अभिसमय (यूएनसीएलओएस) और पर्यावरणीय संधियों सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय ढांचे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्षेत्रीय स्तर पर, स्वालबार्ड संधि और क्षेत्र-विशिष्ट कानूनी साधन जैसे समझौते विशिष्ट पहलुओं को नियंत्रित करते हैं। राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय कानून, जैसेकि—कनाडा और रूस के कानून, गतिविधियों को और अधिक विनियमित करते हैं। प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय संधियों और संगठनों में भारत की सक्रिय भागीदारी आर्कटिक शासन के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है।
आर्कटिक में भारत का दृष्टिकोण स्थापित संधियों के अनुरूप सुरक्षा, स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। यह यूएनसीएलओएस सहित अंतरराष्ट्रीय कानून का समर्थन करता है, तथा जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संधियों में सक्रिय भागीदार है। भारत का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन और अंतरराष्ट्रीय जल सर्वेक्षण संगठन जैसे प्रासंगिक संगठनों में भागीदारी बढ़ाना भी है। समझ को सुदृढ़ करने के लिए, यह आर्कटिक से संबंधित कानून पर ध्यान केंद्रित करता है तथा आर्कटिक देशों और विशेषज्ञ संगठनों के साथ अंतर-सरकारी आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करता है।
राष्ट्रीय क्षमता निर्माण: भारत, आत्मनिर्भर भारत के दर्शन के अनुरूप अपने सामर्थ्य और क्षमताओं वृद्धि करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में अपने आर्कटिक संबंधों को बढ़ाने के लिए तैयार है। इसमें आर्कटिक से संबंधित वैज्ञानिक अनुसंधान का विस्तार, भारतीय विश्वविद्यालयों में अनुसंधान क्षमताओं को बढ़ावा देना, खनिज अन्वेषण और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में विशेषज्ञता विकसित करना, ध्रुवीय नेविगेशन (नौवहन) के लिए प्रशिक्षण संस्थानों को सुदृढ़ करना, हिम-श्रेणी (आइस-क्लास) के स्वदेशी जहाजों का निर्माण, तथा कानूनी, पर्यावरणीय, सामाजिक, नीति और शासन के पहलुओं सहित आर्कटिक अध्ययन के लिए व्यापक संस्थागत क्षमता विकसित करना शामिल है।
भारत के लिए आर्कटिक नीति का महत्व
- जैसाकि एमपी-आईडीएसए के एक विश्लेषण में रेखांकित किया गया है, आर्कटिक क्षेत्र का भू-राजनीतिक महत्व वैश्विक नौवहन मार्गों पर इसके महत्वपूर्ण प्रभाव, अंतरराष्ट्रीय समुद्री मार्गों को बदलने से प्रेरित है।
- आर्कटिक परिवर्तनों के दूरगामी परिणामों को पहचानते हुए, भारत इस क्षेत्र में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए रचनात्मक योगदान देने की इच्छा रखता है। 2050 तक बर्फ-मुक्त आर्कटिक के पूर्वानुमान और इसके प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में बढ़ती वैश्विक रुचि के साथ, भारत की भूमिका तेजी से महत्वपूर्ण हो गई है।
- भारत आर्कटिक अन्वेषण और अनुसंधान के लिए अपनी क्षमताओं में वृद्धि करने हेतु एक आइस-ब्रेकर (बर्फ के बीच से चालन की क्षमता से सुसज्जित जहाज) अनुसंधान पोत के अधिग्रहण पर सक्रिय रूप से काम कर रहा है। अपने मौजूदा उपग्रह नेटवर्क का लाभ उठाते हुए, भारत का लक्ष्य आर्कटिक विकास पहल का समर्थन करने के लिए अधिक विस्तृत छवियां प्राप्त करना है।
- जलवायु परिवर्तन और आर्कटिक मौसम के स्वरूप पर बर्फ के पिघलने के संभावित प्रभावों को देखते हुए, भारत के मानसून पैटर्न पर आर्कटिक के प्रभाव ने भारतीय शोधकर्ताओं के बीच लंबे समय से रुचि जगाई है।
- आर्कटिक अनुसंधान के प्रति भारत की प्रतिबद्धता 2007 से आयोजित 13 अभियानों और 23 सक्रिय विज्ञान परियोजनाओं के प्रबंधन के माध्यम से प्रदर्शित होती है। कई भारतीय संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ सहयोग के परिणामस्वरूप 2007 से आर्कटिक से संबंधित विषयों को संबोधित करने वाले लगभग सौ सहकर्मी-समीक्षा पत्र प्रकाशित हुए हैं।
- आर्कटिक परिषद में एक ‘पर्यवेक्षक’ सदस्य के रूप में भारत की स्थिति इसे मुख्य रूप से अनुसंधान पहल और क्षेत्रीय सहयोग पर केंद्रित विषयगत बैठकों में सक्रिय रूप से भाग लेने की अनुमति देती है।
- वैज्ञानिक प्रयासों से परे, भारत आर्कटिक में महत्वपूर्ण व्यावसायिक अवसरों की पहचान करता है। भारत का लक्ष्य संसाधन अन्वेषण में जिम्मेदारी से भाग लेना और अपतटीय अन्वेषण, खनन, बंदरगाह, रेलवे, सूचना प्रौद्योगिकी और हवाई अड्डों सहित महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश करना है।
- भारत की ‘आर्कटिक नीति’ इसके बहुआयामी दृष्टिकोण को रेखांकित करती है, जो आर्कटिक क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधान, जलवायु अध्ययन और सक्रिय आर्थिक जुड़ाव के प्रति प्रतिबद्धता पर जोर देती है।
भारत की आर्कटिक नीति, जो पर्यावरणीय प्रबंधन और जलवायु कार्रवाई के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण विशिष्ट है, अंतरराष्ट्रीय सहयोग में शामिल होने के लिए देश के दूरदर्शी परिप्रेक्ष्य और तत्परता को रेखांकित करती है। हालांकि, इस नीति का उद्देश्य भारत की आर्कटिक उपस्थिति को बढ़ाना और तेजी से गर्म हो रहे क्षेत्र के सतत विकास में योगदान करना है, तथापि जटिल भू-राजनीति के बीच भी यह इस कार्य को कर रहा है। एक भू-राजनीतिक क्षेत्र के रूप में आर्कटिक की संवेदनशीलता और प्रमुख शक्ति प्रतिद्वंद्विता की उभरती गतिशीलता काफी चुनौतियां पेश करती है। भारत का दृष्टिकोण बहुपक्षीय, नियम-आधारित शासन पर जोर देना है, लेकिन इसे इस निरंतर विकसित हो रहे संदर्भ में विज्ञान कूटनीति और बहुपक्षीय जुड़ाव की जटिल परस्पर क्रिया को कुशलतापूर्वक निर्देशित करने की आवश्यकता होगी। चूंकि वैश्विक अशांति बनी हुई है, भारत की आर्कटिक नीति सामूहिक कल्याण और पर्यावरण संरक्षण के प्रति इसके समर्पण का प्रमाण है।
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