सिंहस्थ उल्कापात (Lenoids Meteor Shower) पृथ्वी से देखे जाने वाली सबसे शानदार खगोलीय घटनाओं में से एक है। इसे एक प्रमुख उल्कापात के रूप में जाना जाता है, हालांकि, इस उल्कापात की दर अकसर लगभग 15 उल्का प्रति घंटे जितनी कम होती है। सिंहस्थ उल्का चमकीली होती हैं और वे रंगीन भी हो सकती हैं (सिंहस्थ चमकते हैं, क्योंकि वे सभी उल्काओं में सबसे तेज गति से यात्रा करते हैं)। सिंहस्थ उल्कापात प्रत्येक वर्ष 6 से 30 नवंबर तक सक्रिय रहता है तथा इस वर्ष अर्थात 2021 में इसकी चरम गतिविधि 17 नवंबर को देखी गई।

सिंहस्थ उल्कापात

सिंहस्थ उल्कापात की उत्पत्ति धूमकेतु P55/Temple-Tuttle से होती है, जो लगभग 33 वर्षों में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करता है और इस दौरान वह सूर्य की कक्षा में वायुमंडलीय धूलकणों के कुछ अवशेष छोड़ देता है। प्रत्येक वर्ष पृथ्वी जब सूर्य की परिक्रमा करते समय इस धूल के मार्ग से होकर गुजरती है, तब वे धूलकण हमारे वायुमंडल से टकराते हैं और आकाश में रंगीन धारियां बनाते हुए बिखर जाते हैं, जो उल्कापात के रूप में दिखाई देता है।

अधिकांश उल्कापातों के नाम निशाकाश (night sky) में स्थित तारामंडलों के नाम पर रखे गए हैं, जहां से उनका प्रकाशपथ आता दिखाई देता है। सिंहस्थ उल्कापात को यह नाम इसीलिए दिया गया है क्योंकि इसका प्रकाशपथ पूर्ण रूप से सिंह तारामंडल (Leo constellation), जो उत्तरी खगोलीय गोलार्द्ध में स्थित तारों का एक समूह है, से उत्पन्न होता प्रतीत होता है।


सिंहस्थ उल्काओं को उनके अग्निपिंडों (Fireballs) और अर्थग्रेजर (Earthgrazer) उल्काओं के लिए भी जाना जाता है। अग्निपिंड प्रकाश और रंगों के दीर्घ विस्फोट होते हैं, जो एक औसत उल्का की चमक से अधिक समय तक प्रत्यक्ष रह सकते हैं और आकाशगंगा में ज्ञात हर तारे और ग्रह से अधिक चमकदार होते हैं। अर्थग्रेजर वे उल्कापिंड होते हैं जो क्षितिज के करीब होते हैं, और अपनी लंबी और रंगीन पुच्छ के लिए जाने जाते हैं।


गतिः सिंहस्थ उल्कापात में उल्काएं अत्यंत तीव्र होती हैं—जो विशिष्ट रूप से 71 किमी. (44 मील) प्रति सेकंड की गति से यात्रा करती हैं और इन्हें सबसे तेज उल्काओं में से एक माना जाता है, क्योंकि अन्य उल्काओं के विपरीत सिंहस्थ पृथ्वी की विपरीत दिशा में सूर्य की परिक्रमा करते हैं, जिससे वे उच्च सापेक्ष गति से पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल पर अधिक तेज गति से गिरते हैं। एक प्रतिरूपी सिंहस्थ उल्का लगभग 155 किमी. की ऊंचाई पर चमकती है।

आकार एवं ऊर्जाः सबसे मंद उल्का, जिसे पृथ्वी से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, का आकार लगभग 0.6 मिमी. (एक इंच के दसवें भाग से भी कम या एक धूलकण के समान) होता है। इससे उत्पन्न ऊर्जा, एक 100 वॉट के बल्ब को लगभग 2.5 सेकंड के लिए प्रकाशित कर सकती है।

मार्बल के लगभग 9-10 मिमी. व्यास तथा एक ग्राम से भी कम द्रव्यमान वाले एक खंड के बराबर की उल्काओं द्वारा द्युतिमान अग्निपिंड उत्पन्न हो सकते हैं। इन चमकीली उल्काओं की विद्युत शक्ति एक मिलियन जूल से भी अधिक होती है। वार्षिक सिंहस्थ वृष्टि संपूर्ण धरती पर 12 या 13 टन कणों को निक्षेपित कर सकती है।

एक उल्का द्वारा निर्मित ऊष्मा बड़ी अंतरिक्षीय चट्टानों (एक बास्केटबॉल के आकार के समान) सहित अधिकांश बिट्स को ऊपरी वायुमंडल में वाष्पित कर देती है, जिससे केवल मुट्ठीभर ठोस सामग्री बच सकती है। व्यापक रूप से, सिंहस्थ उल्का का पदार्थ ‘हल्का’ होता है और जैसे ही सिंहस्थ उल्का पृथ्वी के वायुमंडल से 140 किमी. ऊपर कम घनी वायु में विघटित होने लगती है, इसका पदार्थ भी आसानी से विघटित हो जाता है।

उल्कापात का दृश्यनः सिंहस्थ उल्कापात को स्थानीय समयानुसार लगभग आधी रात को किसी व्यापक, खुली जगह (पार्क की तरह) से संपूर्ण आकाश में नग्न आंखों से देखा जा सकता है। आकाश में जिस बिंदु से ये विकीर्ण दिखाई देते हैं, उस बिंदु को विकिरणी बिंदु (Radiant Point) कहा जाता है। (सिंहस्थ उल्कापात को केवल सिंह तारामंडल, जो आमतौर पर निशाकाश में सूर्योदय होने तक दिखाई देता है, में देखा जा सकता है।)

सिंहस्थ उल्का, झंझा (स्टॉर्म) भी उत्पन्न करती हैं। इस घटना (झंझा) के दौरान छिटपुट घटनाओं (5-8 उल्कापात प्रति घंटे) और उल्कापात (प्रति घंटे कुछ उल्काओं) की तुलना में, प्रति घंटे 1,000 से अधिक अथवा कुछ घटनाओं में प्रति घंटे 1,00,000 से अधिक की उल्कावृष्टि होती है।

1758 में हैली धूमकेतु की खोज तथा तत्पश्चात सिंहस्थ झंझा जैसी खगोलीय घटनाओं/पिंडों के क्रमागत विकास के कारण सिंहस्थ उल्काओं, जिन्हें पूर्व में एक वायुमंडलीय घटना माना जाता था, को वैज्ञानिक अध्ययन में एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। 1833 में आई सबसे प्रसिद्ध उल्का झंझा से उल्काओं और धूमकेतुओं के अध्ययन के क्षेत्र में एक क्रांति आई। यह अनुमान लगाया गया कि उस वर्ष नौ घंटों की अवधि में पृथ्वी पर 2,40,000 उल्काओं से अधिक की उल्कावृष्टि हुई थी।

1866 से 1868 (तीन वर्षों में) तक क्रमशः यूरोप में प्रति मिनट सैकड़ों/प्रति घंटे कुछ हजार उल्का की दर से हुई सिंहस्थ झंझा; चांदनी के कारण इसकी दर में प्रति घंटे 1,000 उल्का तक कमी आने; और निशाकाश में उल्कापात की दर प्रति घंटे 1,000 तक पहुंचने पर पहली बार सिंहस्थ झंझा की ओर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसके पश्चात सिंहस्थ उल्कापात/उल्का झंझा के स्रोत के रूप में धूमकेतु P55/Temple-Tuttle (टेम्पल-टट्टल) की पहचान हुई।

1899 और 1933 में हुई निराशाजनक उल्का झंझाओं ने इस अद्भुत खगोलीय घटना के प्रति लोगों की आशाओं को धूमिल कर दिया, लेकिन 1966 में एक भव्य उल्कावृष्टि हुई, जिसमें प्रति घंटे 1,50,000 उल्काएं देखी गईं। तत्पश्चात, 1999-2001 के दौरान हुई उल्का झंझा में प्रति घंटे लगभग 3,000 उल्का पृथ्वी पर उत्पन्न हुईं।


धूमकेतु P55/Temple-Tuttle

सिंहस्थ उल्कापात के मूल पिंड धूमकेतु P55/Temple-Tuttle की खोज अर्न्स्ट टेम्पल (Ernst Tempel) द्वारा दिसंबर 1865 में और होरास टट्टल (Horrace Tuttle) द्वारा जनवरी 1866 में की गई थी, जिनके नाम पर इसका नामकरण किया गया। यह एक क्षुद्र धूमकेतु है, जिसका केंद्रक (nucleus) एक ओर से दूसरी ओर तक केवल 2.24 मील (3.6 किमी.) है। “P” अक्षर इंगित करता है कि Temple-Tuttle एक आवधिक धूमकेतु है। (एक आवधिक धूमकेतु की कक्षीय अवधि 200 वर्ष से कम होती है।)

इस धूमकेतु को सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में लगभग 33 वर्ष का समय लगता है। अंतिम बार यह 1998 में पेरिहेलियन (उपसौर—सूर्य के सबसे नजदीक) पर पहुंचा था और अगली बार 2031 में पेरिहेलियन पर पहुंचेगा।

उल्कापात और झंझा

नासा के अनुसार, जब कम से कम प्रति घंटे 1,000 उल्काएं पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती हैं, तो उस उल्कापात को उल्का झंझा कहते हैं। औसत वर्षों में सिंहस्थ प्रति घंटे 10-15 उल्का मुक्त करते हैं। 1966 में प्रेक्षकों ने एक शानदार सिंहस्थ झंझा का अनुभव किया, जिसमें 15 मिनट की अवधि में प्रति मिनट हजारों उल्का पृथ्वी पर गिरी। आखिरी सिंहस्थ उल्का झंझा वर्ष 2002 में आई थी।

उल्कापात तब होता है, जब पृथ्वी धूमकेतु द्वारा छोड़े गए कणों की उल्काभ (Metoroid) धारा के मार्ग से यात्रा करती है। उल्काभ धूमकेतु से बाहर निकलते हैं, क्योंकि जब यह (धूमकेतु) सूर्य के काफी नजदीक होता है, तब इसकी जमी हुए गैसें सूर्य की गर्मी के कारण वाष्पित हो जाती हैं। उल्काओं का प्रकाश तब दिखाई देता है, जब यह उल्कापिंडों (Meteorites) और पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद अणुओं के बीच होने वाले घर्षण से जलता है। उल्काएं अपने पीछे आयनित गैस की एक पुच्छ छोड़ देती हैं।

उल्काभ, उल्का, और उल्कापिंड

उल्काभ (अंतरिक्ष चट्टानें) अंतरिक्ष में ऐसी वस्तुएं हैं, जो अंतग्रहीय अंतरिक्ष (पृथ्वी के बाह्य वायुमंडल) में तैरती रहती हैं। इनका आकार धूल के कणों से लेकर छोटे क्षुद्रग्रहों तक होता है।

जब उल्काभ पृथ्वी (या मंगल जैसे किसी अन्य ग्रह) के वायुमंडल में तेज गति से प्रवेश करते हैं और जल जाते हैं, तो वे अग्निपिंड या ‘शूटिंग स्टार्स’ अथवा उल्का कहलाते हैं।

जब कोई उल्काभ वायुमंडल से होता हुआ पृथ्वी की सतह या जमीन से टकराता है, तो उसे उल्कापिंड कहा जाता है।


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